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जैनदर्शन इस व्यापक आत्मवादमें सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि-एक अखण्ड द्रव्य कुछ भागोंमे सगुण और कुछ भागोंमें निर्गुण कैसे रह सकता है ? फिर जब सब आत्माओंका सम्बन्ध सबके शरीरोंके साथ है, तब अपने-अपने सुख, दुःख और भोगका नियम बनना कठिन है। अदृष्ट भी नियामक नहीं हो सकता; क्योंकि प्रत्येकके अदृष्टका सम्बन्ध उसको आत्माकी तरह अन्य शेष आत्माओंके साथ भी है । शरीरसे बाहर अपनी आत्माकी सत्ता सिद्ध करना अत्यन्त दुष्कर कार्य है। व्यापक-पक्षमें एकके भोजन करने पर दूसरेको तृप्ति होनी चाहिए, और इस तरह समस्त व्यवहारोंका सांकर्य हो जायगा। मन और शरीरके सम्बन्धकी विभिन्नतासे व्यवस्था बैठाना भी कठिन है। सबसे बड़ी बात तो यह कि है कि इसमें संसार और मोक्षकी व्यवस्थाएं ही चौपट हो जाती है। यह सर्वसम्मत नियम है कि जहाँ गुण पाये जाते है, वहीं उसके आधारभूत द्रव्यका सद्भाव माना जाता है । गुणोंके क्षेत्रसे गुणीका क्षेत्र न तो बड़ा होता है, और न छोटा ही। सर्वत्र आकृतिमें गुणों के बराबर ही गुण होते है । अब यदि हम विचार करते है तो जब ज्ञानदर्शनादि आत्माके गुण हमें शरीरके बाहर उपलब्ध नहीं होते तब गुणोंके बिना गुणीका सद्भाव शरीरके बाहर कैसे माना जा सकता है ?
अणु आत्मवाद:
इसी तरह आत्माको अणुरूप मानने पर, अंगूठेमें काँटा चुभनेसे सारे शरीरके आत्मप्रदेशोंमें कम्पन और दुःखका अनुभव होना असम्भव हो जाता है। अणुरूप आत्माकी सारे शरीरमें अतिशीघ्र गति मानने पर भी इस शंकाका उचित समाधान नहीं होता; क्योंकि क्रम अनुभवमें नहीं आता। जिस समय अणु आत्माका चक्षुके साथ सम्बन्ध होता है, उस समय भिन्नक्षेत्रवर्ती रसना आदि इन्द्रियोंके साथ युगपत् सम्बन्ध होना असंभव है। किन्तु नीबूको आँखसे देखते ही जिह्वा इन्द्रियोंमें पानीका आ