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पदार्थका स्वरूप
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देखते हैं कि बालक दोजके चन्द्रमाके समान बढ़ता है, सोखता है और जीवन - विकासको प्राप्त कर रहा है। जड़ जगत्के विचित्र परिवर्तन तो हमारी आंखोंके सामने हैं । यदि पदार्थ सर्वथा नित्य हों तो उनमें क्रम या युगपत् किसी भी रूपसे कोई अर्थक्रिया नहीं हो सकेगी । और अर्थक्रियाके अभाव में उनकी सत्ता ही सन्दिग्ध हो जाती है ।
इसी तरह यदि पदर्थको पर्याय नामक विशेषके रूपमें ही स्वीकार किया जाय, अर्थात् सर्वथा क्षणिक माना जाय, याने पूर्वक्षणका उत्तरक्षणके साथ कोई सम्बन्ध स्वीकार न किया जाय; तो देन-लेन, गुरु-शिष्यादि व्यवहार तथा बन्ध-मोक्षादि व्यवस्थाएँ समाप्त हो जायगी । न कारण-कार्यभाव होगा और न अर्थक्रिया हो । अतः पदार्थको ऊर्ध्वता सामान्य और पर्याय नामक विशेषके रूप में सामान्यविशेषात्मक या द्रव्यपर्यायात्मक ही स्वीकार करना चाहिये ।