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जैनदर्शन
( सादृश्यास्तित्व ) से तथा व्यावृत्त प्रत्यय व्यतिरेक' नामक बिशेषसे होता है ।
सामान्यविशेषात्मक अर्थात् द्रव्यपर्यात्मक :
जगतका प्रत्येक पदार्थ इस प्रकार सामान्य विशेषात्मक है । पदार्थका सामान्यविशेषात्मक विशेषण धर्मरूप है जो अनुगत प्रत्यय और व्यावृत्त प्रत्ययका विषय होता है । पदार्थकी उत्पाद - व्यय - ध्रौव्यात्मकता परिणमनसे सम्बन्ध रखती है । ऊपर जो सामान्य और विशेषको धर्म बताया है, वह तिर्यक् सामान्य और व्यतिरेक विशेषसे ही सम्बन्ध रखता है । द्रव्यके श्रीव्यांशको ही ऊर्ध्वता सामान्य और उत्पाद - व्ययको ही पर्याय नामक विशेष कहते है । वर्तमानके प्रति अतीतका और भविष्यके प्रति वर्तमानका उपादान कारण होना, यह सिद्ध करता है कि तीनों क्षणोंकी अविच्छिन्न कार्यकारणपरंपरा है । प्रत्येक पदार्थकी यह सामान्यविशेषात्मकता उसके अनन्तधर्मात्मकत्वका ही लघु स्वरूप है ।
तिर्यक् सामान्यरूप सादृश्यकी अभिव्यक्ति यद्यपि परसापेक्ष है, किंतु उसका आधारभूत प्रत्येक द्रव्य जुदा जुदा है । यह उभयनिष्ठ न होकर प्रत्येक में परिसमाप्त है |
पदार्थ न तो केवल सामान्यात्मक ही है और न विशेषात्मक हो । यदि केवल ऊर्ध्वतासामान्यात्मक अर्थात् सर्वथा नित्य अविकारी पदार्थ स्वीकार किया जाता है तो वह त्रिकालमें सर्वथा एकरस, अपरिवर्तनशील और कूटस्थ बना रहेगा । ऐसे पदार्थ में कोई परिणमन न होनेसे जगत्के समस्त व्यवहार उच्छिन्न हो जायँगे । कोई भी क्रिया फलवतो नहीं हो सकेगी । पुण्य-पाप और बन्ध-मोक्षादि व्यवस्था नष्ट हो जायगी । अतः उस वस्तु में परिवर्तन तो अवश्य ही स्वीकार करना होगा । हम नित्यप्रति
१. अर्थान्तरगतो विसदृशपरिणामो व्यतिरेको गोमहिषादिवत् । "
- परीक्षामुख ४।९।