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________________ लोकव्यवस्था १२९ और अन्योन्य प्रभावकता, अनादि कालसे बराबर चली आ रही हैं। इसके लिए किसी विधाता, नियन्ता, अधिष्ठाता या व्यवस्थापककी आवश्यकता नहीं है । ऋतुओंका परिवर्तन, रात-दिनका विभाग, नदी-नाले, पहाड़ आदिका विवर्तन आदि सब पुद्गलद्रव्योंके परस्पर संयोग, विभाग, संश्लेष और विश्लेष आदिके कारण स्वयं होते रहते हैं । सामान्यतः हर द्रव्य अपनी पर्यायोंका उपादान है, और सम्प्राप्त सामग्रीके अनुसार अपनेको बदलता रहता है । इसी तरह अनन्त कार्यकारणभावोंको स्वयमेव सृष्टि होती रहती है । हमारी स्थूल दृष्टि जिन परिवर्तनों को देखकर आश्चर्य चकित होती है, वे अचानक नहीं हो जाते । किन्तु उनके पीछे परिण - मनोंकी सुनिश्चित परंपरा है । हमें तो असंख्य परिणमनोंका औसत और स्थूल रूप ही दिखाई देता है । प्रतिक्षणभावी सूक्ष्म परिणमन और उनके अनन्त कार्यकारणजालको समझना साधारण बुद्धिका कार्य नहीं है । दूरकी बात जाने दीजिये, सर्वथा और सर्वदा अतिसमीप शरीरको ही ले लीजिए | उसके भीतर नसाजाल, रुधिरप्रवाह और पाकयंत्र में कितने प्रकारके परिवर्तन प्रतिक्षण होते रहते हैं, जिनका स्पष्ट ज्ञान करना दुःशक्य है | जब वे परिवर्तन एक निश्चित धाराको पकड़कर किसी विस्फोटक रागके रूपमें हमारे सामने उपस्थित होते हैं, तब हमें चेत आता है । जगत् परमार्थिक और स्वतःसिद्ध है : दृश्य जगत परमाणुरूप स्वतन्त्र द्रव्योंका मात्र दिखाव ही नहीं है, किन्तु अनन्त पुद्गलपरमाणुओंके बने हुए स्कन्धोंका बनाव है । हर स्कन्धके अन्तर्गत परमाणुओंमें परस्पर इतना प्रभावक रासायनिक सम्बन्ध है कि सबका अपना स्वतन्त्र परिणमन होते हुए भी उनके परिणमनोंमें इतना सादृश्य होता है कि लगता है, जैसे इनकी पृथक् सत्ता ही न हो । एक आमके फलरूप स्कन्धमें सम्बद्ध परमाणु अमुक काल तक एक जैसा परिणमन करते हुए भी परिपाक कालमें कहीं पीले, कहीं हरे, कहीं खट्टे,
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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