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जैनदर्शन अतः ज्ञान जिस प्रकार अपनेमें सत्य पदार्थ है, उसी तरह संसारके अनन्त जड़ पदार्थ भी अपनी स्वतन्त्र सत्ता रखते हैं। ज्ञान पदार्थ को उत्पन्न नहीं करता किन्तु अपने-अपने कारणोंसे उत्पन्न अनन्त जड़ पदार्थों को ज्ञान मात्र जानता है । पृथक् सिद्ध ज्ञान और पदार्थमें ज्ञेयज्ञायकभाव होता है । चेतन और अचेतन दोनों प्रकारके पदार्थ स्वयं सिद्ध है और स्वयं अपनी पृथक् सत्ता रखते हैं। लोक और अलोक :
चेतन अचेतन द्रव्योंका ससुदाय यह लोक शाश्वत और अनादि इसलिए है कि इसके घटक द्रव्य प्रतिक्षण परिवर्तन करते रहने पर भी अपनी संख्यामें न तो एकको कमी करते हैं और न एकको बढ़ती ही। इसीलिए यह अवस्थित कहा जाता है । आकाश अनन्त है। पुद्गल द्रव्य परमाणु रूप हैं । काल द्रव्य कालाणुरूप हैं । धर्म, अधर्म और जीव असंख्यात प्रदेशवाले हैं । इनमें धर्म, अधर्म, आकाश और काल निष्क्रिय हैं । जीव और पुद्गलमें ही क्रिया होती है। आकाश के जितने हिस्से तक ये छहों द्रव्य पाये जाते हैं, वह लोक कहलाता है और उससे परे केवल आकाशमात्र अलोक । चूंकि जीव और पुद्गलोंकी गति और स्थितिमें धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य साधारण निमित्त होते हैं । अतः जहाँतक धर्म और अधर्म द्रव्यका सद्भाव है, वहीं तक जीव और पुद्गलका गमन और स्थान सम्भव है । इसीलिए आकाशके उस पुरुषाकार मध्य भागको लोक कहते हैं जो धर्मद्रव्यके बराबर है। यदि इन धर्म और अधर्म द्रव्यको स्वीकार न किया जाय तो लोक
और अलोकका विभाग ही नहीं बन सकता। ये तो लोकके मापदण्डके -समान है। लोक स्वयं सिद्ध है।
यह लोक स्वयं सिद्ध है; क्योंकि इनके घटक सभी द्रव्य स्वयं सिद्ध हैं। उनकी कार्यकारणपरम्परा, परिवर्तन स्वभाव, परस्पर निमित्तत्ता