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लोकव्यवस्था
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अमुक अप्रमाण' यह भेद ज्ञानोंमें कैसे किया जा सकता है । ज्ञानमें तत्त्व - अतत्त्व, अर्थ - अनर्थ, और प्रमाण- अप्रमाणका भेद बाह्यवस्तुकी ही निर्भर करता है । स्वामी समन्तभद्रने ठीक ही कहा है
सत्ता पर
"बुद्धिशब्दप्रमाणत्वं बाह्यार्थे सति नाऽसति । सत्यानृतव्यवस्थैवं युज्यतेऽर्थाप्त्यनाप्तिषु ॥”
- आप्तमी० श्लो० ८७
अर्थात् बुद्धि और शब्दकी प्रमाणता बाह्यपदार्थके होने पर ही सिद्ध की जा सकती है, अभाव में नहीं । इसी तरह अर्थ की प्राप्ति और अप्राप्तिसे ही सत्यता और मिथ्यापन बताया जा सकता है ।
बाह्यपदार्थोंमें परस्पर विरोधी अनेक धर्मोका समागम देखकर उसके विराट् स्वरूप तक न पहुँच सकनेके कारण उसकी सत्तासे ही इनकार करना, अपनी अशक्ति या नासमझीको विचारे पदार्थ पर लाद देना है ।
यदि हम बाह्य पदार्थों के एकानेक स्वभावोंका विवेचन नहीं कर सकते, तो इसका अर्थ यह नहीं है कि उन पदार्थों के अस्तित्वसे ही सर्वथा इन-कार किया जाय । अनन्तधर्मात्मक पदार्थका पूर्ण विवेचन, अपूर्ण ज्ञान और शब्दोंके द्वारा असम्भव भी है । जिस प्रकार एक संवेदन ज्ञान स्वयं ज्ञेयाकार, ज्ञानाकार और ज्ञप्ति रूपसे अनेक आकार-प्रकारका अनुभवमें आता हैं उसी प्रकार प्रत्येक पदार्थ अनेक विरोधी धर्मोका अविरोधी आधार है ।
अफलातुं तर्क करता था कि - " कुर्सीका काठ कड़ा है । कड़ा न होता तो हमारे बोझको कैसे सहारता ? और काठ नर्म है, यदि नर्म न होता तो कुल्हाड़ा उसे कैसे काट सकता ? और चूँकि दो विरोधी गुणोंका एक जगह होना असम्भव है, इसलिए यह कड़ापन, यह नरमपन और कुर्सी सभी असत्य हैं ।" अफलातु गिरोबी दो धर्मों को देखकर ही घबड़ा जाता है और उन्हें असत्य होनेका फतवा दे देता है, जब कि स्वयं ज्ञान भी ज्ञेयाकार और ज्ञानाकार इन विरोधी दो धर्मोका आधार बना हुआ उसके सामने है |