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जैनदर्शन
करते हैं । उनकी व्यवहारसंज्ञायें भले ही प्रातिभासिक हों, पर वह पदार्थ, जिसमें ये संज्ञायें की जाती हैं, विज्ञानकी तरह ही परमार्थसत् है । ज्ञान पदार्थपर निर्भर हो सकता है, न कि पदार्थ ज्ञानपर । जगतमें अनन्त ऐसे पदार्थ भरे पड़े हैं, जिनका हमें ज्ञान नहीं होता । ज्ञानके पहले भी वे पदार्थ थे और ज्ञानके बाद भी रहेगे। हमारा इन्द्रिय-ज्ञान तो पदार्थोंकी उपस्थिति विना हो ही नहीं सकता नीलाकार ज्ञानसे तो कपड़ा नहीं रंगा जा सकता । कपड़ा रंगनेके लिए ठोस जड नील चाहिए, जो ठोस और जड़ कपड़ेके प्रत्येक तन्तुको नीला बनाता हैं । यदि कोई परमार्थसत् नील अर्थ न हो, तो नीलाकार वासना कहाँ से उत्पन्न होगी ? वासना तो पूर्वानुभवकी उत्तर दशा है । यदि जगतमें नील अर्थ नहीं है तो ज्ञानमें लाकार कहाँ से आया ? वासना नीलाकार कैसे बन गई ?
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तात्पर्य यह कि व्यवहारके लिए की जानेवाली संज्ञाएँ, इष्ट-अनिष्ट और सुन्दर-असुन्दर आदि कल्पनाएँ भले ही विकल्पकल्पित हों और दृष्टिसृष्टिकी सीमा में हों, पर जिस आधारपर ये कल्पनाएँ कल्पित होती हैं, वह आधार ठोस और सत्य है । 'विषके ज्ञानसे मरण नहीं होता । विषका ज्ञान जिस प्रकार परमार्थसत् है, उसी तरह विष पदार्थ, विषका खानेवाला और विषके संयोगसे होनेवाला शरीरगत रासायनिक परिणमन भी परमार्थसत् ही हैं । पर्वत, मकान, नदी आदि पदार्थ यदि ज्ञानात्मक ही हैं, तो उनमें मूर्तत्व । स्थूलत्व और तरलता आदि कैसे आ सकते हैं ? ज्ञानस्वरूप नदीमें स्नान या ज्ञानात्मक जलसे तृषाकी शान्ति और ज्ञानात्मक पत्थरसे सिर तो नहीं फूट सकता ?
यदि ज्ञानसे भिन्न मूर्त शब्दकी सत्ता न हो तो संसारका समस्त शाब्दिक व्यवहार लुप्त हो जायगा । परप्रतिपत्तिके लिए ज्ञानसे अतिरिक्त वचनकी सत्ता मानना आवश्यक हैं । फिर, 'अमुक ज्ञान प्रमाण है और
१ " न हि जातु विषज्ञानं मरणं प्रति धावति ।" न्यायवि ० १ । ६९ ।