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________________ लोकव्यवस्था १२५ क्या आवश्यकता है ? और 'यदि नीलाकार ज्ञान नहीं है तो उस बाह्य नीलका अस्तित्व ही कैसे सिद्ध किया जा सकता है ? अतः ज्ञान ही बाह्य और आन्तर, ग्राह्य और ग्राहक रूपमें स्वयं प्रकाशमान है, कोई बाह्यार्थ नहीं है। ___ सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि-ज्ञान या अनुभव किसी पदार्थका ही तो होता है । विज्ञानवादी स्वप्नका दृष्टान्त देकर बाह्यपदार्थका लोप करना चाहते है। किन्तु स्वप्नको अग्नि और बाह्य सत् अग्निमे जो वास्तविक अन्तर है, वह तो एक छोटा बालक भी समझ सकता है। समस्त प्राणी घट पट आदि बाह्य पदार्थोसे अपनी इष्ट अर्थक्रिया करके आकांक्षाओंको शान्त करते है और मंतोषका अनुभव करते है, जब कि स्वप्नदृष्टि वा ऐन्द्रजालिक पदार्थोसे न तो अर्थक्रिया ही होती है और न तज्जन्य संतोषका अनुभव हो । उनकी काल्पनिकता तो प्रतिभासकालमे ही ज्ञात हो जाती है । धर्मग्रन्थ, पुस्तक, रद्दी आदि ‘मंज्ञाएं' मनुष्यकृत और काल्पनिक हो सकती है, पर जिस वजनवाले रूप-रस-गंध-स्पर्शवाले स्थूल ठोस पदार्थमें ये संज्ञाएं की जाती है, वह तो काल्पनिक नहीं है। वह तो ठोस, वजनदार, सप्रतिघ और रूप-रसादि-गुणोंका आधार परमार्थसत् पदार्थ है । इस पदार्थको अपने-अपने संकेतके अनुसार चाहे कोई धर्मग्रन्थ कहे, कोई पुस्तक, कोई किताब, कोई बुक या अन्य कुछ कहे, ये संकेत व्यवहारके लिये अपनी परम्परा और वासनाओंके अनुसार होते है, उसमें कोई आपत्ति नहीं है, पर उस ठोस पुद्गलसे इनकार नहीं किया जा सकता। दृष्टि-सृष्टिका भी अर्थ यही है कि सामने रखे हुए परमार्थसत् ठोस पदार्थमें अपनी-अपनी दृष्टिके अनुसार अनेक पुरुप अनेक प्रकारके व्यवहार १ "धियो नीलादिरूपत्वे बाह्योऽर्थः किप्रमाणकः ? धियोऽनीलादिरूपत्वे स तस्यानुभवः कथम् ॥" -प्रमाणवा०३१४३३।
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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