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जैनदर्शन
स्वीकार करते है । यही ब्रह्म नानाविध जीवात्माओं और घटपटादि बाह्य अर्थोंके रूपमें प्रतिभासित होता है ।
२. संवेदनाद्वैतवादी क्षणिक परमाणुरूप अनेक ज्ञानक्षणोंका पृथक् पारमार्थिक अस्तित्व स्वीकार करते है । इनके मतसे ज्ञानसंतान ही अपनीअपनी वासनाओंके अनुसार विभिन्न पदार्थोंके रूपमे भासित होनी है ।
३. एक ज्ञानसन्तान माननेवाले भी संवेदनाद्वैतवादी है ।
बाह्यार्थ लोपकी इस विचारधाराका आधार यह मालूम होता है कि प्रत्येक व्यक्ति अपनी कल्पनाके अनुसार पदार्थोंमें शब्द - संकेत करके व्यवहार करता है । जैसे एक पुस्तकको देखकर उस धर्मका अनुयायी उसे 'धर्मग्रन्थ ' समझकर पूज्य मानता है, पुस्तकाध्यक्ष उसे अन्य पुस्तकोंकी तरह एक 'सामान्य पुस्तक' समझता है, तो दुकानदार उसे 'रद्दी' के भाव खरीदकर उससे पुड़िया बाँधता है, भंगी उसे ' कूड़ा कचड़ा' समझकर झाड़ देता है और गाय-भैस आदि उसे 'पुद्गलोंका पुंज' समझकर 'घास' की तरह खा जाते है । अब आप विचार कीजिये कि पुस्तकमे धर्मग्रन्थ, पुस्तक, रद्दी, कचरा और एक खाद्य आदिकी संज्ञाएँ तत् तत् व्यक्तियोके ज्ञानसे ही आयी है, अर्थात् धर्मग्रन्थ पुस्तक आदिका सद्भाव उन व्यक्तियो के ज्ञानमे है, बाहर नही । इस तरह धर्मग्रन्थ और पुस्तक आदिकी व्यावहारिक सत्ता है, पारमार्थिक नही । यदि इनको पारमार्थिक सत्ता होती तो बिना किसी संकेत और संस्कारके वह सबको उसी रूपमें दिखनी चाहिए थी । अतः जगत केवल कल्पनामात्र है, उसका कोई वाह्य अस्तित्व नहीं ।
बाह्य पदार्थोके स्वरूपपर जैसे-जैसे विचार करते है— उनका स्वरूप एक, अनेक, उभय और अनुभय आदि किसी रूप मे भी सिद्ध नहीं हो पाता । अन्ततः उनका अस्तित्व तदाकार ज्ञानसे ही तो सिद्ध किया जा सकता है । यदि नीलाकार ज्ञान मौजूद है, तो बाह्य नीलके मानने की