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लोकव्यवस्था
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स्वार्थकी सृष्टि करना, तात्त्विक अपराध तो है ही, साथ ही यह नैतिक भी नहीं है । इस महाप्रभुका नाम लेकर वर्गस्वार्थी गुटने संसारमे जो अशान्ति युद्ध और खून की नदियाँ बहाई है उसे देखकर यदि सचमुच कोई ईश्वर होता तो वह स्वयं आकर अपने इन भक्तों को साफ-साफ कह देता कि 'मेरे नामपर इस निकृष्टरूपमे स्वार्थका नग्न पोषण न करो ।' तत्त्वज्ञानके क्षेत्रमे दृष्टि - विपर्य्याम होनेसे मनुष्यको दूसरे प्रकारसे सोचनेका अवसर हो नहीं मिला । भगवान महावीर और बुद्धने अपने-अपने ढंगसे इस दुर्दृष्टिकी ओर ध्यान दिलाया, और मानवको समता और अहिसाकी सर्वोदयी भूमिपर खड़े होकर सोचनेकी प्रेरणा दी ।
जगत् के स्वरूपके दो पक्ष : १ विज्ञानवाद :
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जगतके स्वरूपके सम्बन्धमे स्थूल रूपसे दो पक्ष पहलेसे ही प्रचलित रहे है । एक पक्ष तो इन भौतिकवादियोंका था, जो जगतको ठोस सत्य मानते रहे । दूसरा पक्ष विज्ञानवादियोंका था, जो संवित्ति या अनुभवके सिवाय किसी बाह्य ज्ञेयकी सत्ताको स्वीकार नहीं करना चाहते। उनके मतसे' बुद्धि ही विविध वासनाओके कारण नाना रूपमे प्रतिभासित होती है । विशप, वर्कले योम और हैगल आदि पश्चिमी तत्त्ववेक्ता भी संवेदनाओके प्रवाहसे भिन्न संवेद्यका अस्तित्व नहीं मानना चाहते। जिस प्रकार स्वप्नमे बाह्य पदार्थोके अभावमें भी अनेक प्रकारके अर्थक्रियाकारी दृश्य उपस्थित होते है उसी तरह जागृति भी एक लम्बा सपना है । स्वप्नज्ञानकी तरह जागृतज्ञान भी निरालम्बन है, केवल प्रतिभासमात्र है । इनके मतसे मात्र ज्ञानकी ही पारमार्थिक सत्ता है । इनमे भी अनेक मतभेद है
१ वेदान्ती एक नित्य और व्यापक ब्रह्मका ही पारमार्थिक आस्तित्व
१. “ अविभागोऽपि बुद्धधात्मा विपर्यासितदर्शनैः । ग्राह्यग्राहकसंवित्तिमेदवानिव लक्ष्यते ॥ " - प्रमाणवा० ३ | ४३५ ।