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जैनदर्शन
कहीं मोठे, कहीं पक्कगन्धी, कहीं आमगन्धी, कहीं कोमल और कहीं कठोर आदि विविध प्रकारके परिणमनोंको करते हुए स्पष्ट दिखाई देते हैं । इसी तरह पर्वत आदि महास्कन्ध सामान्यतया स्थूलदृष्टिसे एक दिखाई देते हैं, पर हैं वे असंख्य पुद्गलाणुओंके विशिष्ट सम्बन्धको प्राप्त पिण्ड ही ।
जब परमाणु किसी स्कन्धमें शामिल होते हैं, तब भी उनका व्यक्तिशः परिणमन रुकता नहीं है, वह तो अविरामगति से चलता रहता है । उसके घटक सभी परमाणु अपने बलाबल के अनुसार मोर्चेबन्दी करके परिणमनयुद्ध आरम्भ करते हैं और विजयी परमाणुसमुदाय शेष परमाणुओं को अमुक प्रकारका परिणमन करनेके लिए बाध्य कर देते हैं । यह युद्ध अनादि काल से चला है और अनन्तकाल तक बराबर चलता जायगा । प्रत्येक परमाणुमें भी अपनी उत्पाद और व्यय शक्तिका द्वन्द्व सदा चलता रहता है। यदि आप सीमेन्ट फैक्टरीके उस बायलरको ठंडे शीशेसे देखें तो उसमें असंख्य परमाणुओंकी अतितीव्र गतिसे होनेवाली उथल-पुथल आपके माथेको चकरा देगी |
तात्पर्य यह कि मूलतः उत्पाद-व्ययशील और गतिशील परमाणुओंके विशिष्ट समुदायरूप विभिन्न स्कन्धोंका समुदाय यह दृश्य जगत “प्रतिक्षणं गच्छतीति जगत्" अपनी इस गतिशील 'जगत' संज्ञाको सार्थक कर रहा है । इस स्वाभाविक, सुनियंत्रित, सुव्यवस्थित, सुयोजित और सुसम्बद्ध विश्वका नियोजन स्वत: है उसे किसी सर्वान्तर्यामीकी बुद्धिकी कोई अपेक्षा नहीं है ।
यह ठीक है कि मनुष्य प्रकृतिके स्वाभाविक कार्यकारणतत्त्वोंकी जानकारी करके उनमें तारतम्य, हेर-फेर और उनपर एक हद तक प्रभुत्व स्थापित कर सकता है, और इस यांत्रिक युगमें मनुष्यने विशालकाय यन्त्रोंमें प्रकृतिके अणुपुञ्जोंको स्वेच्छित परिणमन करनेके लिये बाध्य भी किया है । और जब तक यंत्रका पंजा उनको दबोचे है तब तक वे बरावर अपनी द्रव्ययोग्यता के अनुसार उस रूपसे परिणमन कर भी रहे हैं और