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जानते हैं हुआ है, आदमी कह सकते हैं कि
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जैनदर्शन यदि पदार्थ और गति सदासे है तो हम कह सकते है कि आदमीका कोइ चेतन रचयिता नहीं हुआ है, आदमी किसीकी विशेष रचना नहीं है । यदि हम कुछ जानते है तो यह जानते है कि उस देवी कुम्हारने, उस ब्रह्माने कभी मिट्टी और पानी मिला कर पुरुषों तथा स्त्रियोंकी रचना नहीं को और उनमें कभी जान नहीं फूंकी।"
समीक्षा और समन्वय-भौतिकवादके उक्त मूल सिद्धान्तके विवेचनसे निम्नलिखित बातें फलित होती है
(१) विश्व अनन्त स्वतन्त्र मौलिक पदार्थोंका समुदाय है ।
(२) प्रत्येक मौलिकमें विरोधी शक्तियोंका समागम है, जिसके कारण उसमें स्वभावतः गति या परिवर्तन होता रहता है।
(३) विश्वकी रचना योजना और व्यवस्था, उसके अपने निजी स्वभावके कारण है, किसीके नियन्त्रणसे नहीं।
(४) किसी सत्का न तो सर्वथा विनाश होता है और न सर्वथा असत्का उत्पाद ही।
(५) जगतका प्रत्येक अणु परमाणु प्रतिक्षण गतिशील याने परिवर्तनशील है । ये परिवर्तन परिणामात्मक भी होते है और गुणात्मक भी।
(६) प्रत्येक वस्तु सैकड़ों विरोधी शक्तियोंका समागम है । (७) जगतका यह परिवर्तन चक्र अनादि-अनन्त है ।
हम इन निष्कर्मोंपर ठंडे दिल और दिमागसे विचार करें तो ज्ञात होगा कि भौतिकवादियोंको यह वस्तुस्वरूपकी विवेचना वस्तुस्थितिके विरुद्ध नहीं है । जहां तक भूतोंके विशिष्ट रासायनिक मिश्रणसे जीवतत्त्वकी उत्पत्तिका प्रश्न है वहाँ तक उनका कहना एक हद तक विचारणीय है। पर सामान्यस्वरूपको व्याख्या न केवल तर्कसिद्ध ही है किन्तु अनुभवगम्य भी है । इनका सबसे मौलिक सिद्धान्त यह है कि प्रत्येक वस्तुमें स्वभावसे ही दो विरोधी शक्तियाँ मौजूद है, जिनके संघर्षसे उसे गति मिलती है, उसका परिवर्तन होता है और जगत्का समस्त कार्यकारणचक्र चलता है। मैं