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________________ लोकव्यवस्था ११९ पहले लिख आया हूँ कि जैनदर्शनकी द्रव्यव्यवस्थाका मूल मंत्र उत्पादनव्यय-ध्रौव्यरूप त्रिलक्षणता है । भौतिकवादियोंने जब वस्तुके कार्यकारणप्रवाहको अनादि और अनन्त स्वीकार किया है, और वे सत्का सर्वथा विनाश और असत्की उत्पत्ति जब नहीं मानते तो उन्होंने द्रव्यकी अविच्छिन्न धारा रूप ध्रौव्यत्वको स्पष्ट स्वीकार किया ही है। ध्रौव्यका अर्थ सर्वथा अपरिणामीनित्य और कूटस्थ नहीं है; किन्तु जो द्रव्य अनादि कालसे इस विश्वके रंगमंचपर परिवर्तन करता हुआ चला आ रहा है, उसकी परिवर्तन धाराका कभी समूलोच्छेद नहीं होना है । इसके कारण एक द्रव्य प्रतिक्षण अपनी पर्यायोंमें बदलता हुआ भी, कभी न तो समाप्त होता है और न द्रव्यान्तरमें विलीन ही होता है । इस द्रव्यान्तर-असंक्रान्तिका और द्रव्यकी किसी न किसी रूपमें स्थितिका नियामक ध्रौव्यांश है। जिससे भौतिकबादी भी इनकार नहीं कर सकते । विरोधी समागम अर्थात् उत्पाद और व्यय : जिस विरोधी शक्तियोंके समागमकी चर्चा उन्होंने द्वन्द्ववाद (Dharectism) के रूपमें की है वह प्रत्येक द्वव्यमें रहनेवाले उनके निजी स्वभाव उत्पाद और व्यय है। इन दो विरोधी शक्तियोंकी वजहसे प्रत्येक पदार्थ प्रतिक्षण उत्पन्न होता है और नष्ट होता है। यानी पूर्वपर्यायका विनाश और उत्तरपर्यायका उत्पाद प्रतिक्षण वस्तुमे निरपवादरूपसे होता रहता है। पूर्व पर्यायका विनाश ही उत्तरका उत्पाद है । ये दोनों शक्तिर्या एक साथ वस्तुमें अपना काम करती है और ध्रौव्यक्ति द्रव्यका मौलिकत्व सुरक्षित रखती है। इस तरह अनन्तकाल तक परिवर्तन करते रहने पर भी द्रव्य कभी निःशेष नहीं हो सकता। उसमें चाहे गुणात्मक परिवर्तन हों या परिणात्मक, किन्तु उसका अपना अस्तित्व किसी न किसी अवस्था में अवश्य ही रहेगा। इस तरह प्रतिक्षण त्रिलत्रण पदार्थ एक क्रमसे अपनी १. 'कार्योत्पादः क्षयो हेतोनियमात्"-आप्तमी० श्लोक० ५८ ।
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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