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जैनदर्शन
समागमको मान लेने पर फिर विश्वके संचालक ईश्वरकी जरूरत नहीं रहती । न किसी अभौतिक दिव्य, रहस्यमय नियमकी आवश्यकता है । विश्वके रोम-रोम में गति है । दो परस्पर विरोधी शक्तियोंका मिलना ही गति पैदा करने के लिए पर्याप्त है । गतिका नाम विकास है । यह 'लेनिन' के शब्दों में कहिये तो विकास विरोधियोंके संघर्षका नाम है । विरोधी जब मिलेंगे तब संघर्ष जरूर होगा । संघर्ष नये स्वरूप, नयी गति, नयी परिस्थिति अर्थात् विकासको जरूर पैदा करेगा । यह बात साफ है । विरोधियोंके समागमको परस्पर अन्तरव्यापन या एकता भी कहते हैं । जिसका अर्थ यह है कि वे एक ही ( अभिन्न ) वास्तविकताके ऐसे दोनों प्रकार के पहलू होते है । ये दोनों विरोध दार्शनिकोंको परमार्थकी तराजू पर तुले सनातन कालसे एक दूसरेसे सर्वथा अलग अवस्थित भिन्न-भिन्न तत्त्वके तौर पर नहीं रहते बल्कि वह वस्तुरूपेण एक है— एक ही स्थान पर अभिन्न होकर रहते हैं । जो कर्जखोरके लिए महाजनके लिए धन है | हमारे लिए जो पूर्वका रास्ता है, वही दूसरेके लिए पश्चिमका भी रास्ता है। बिजली में धन और ऋणके छोर दो अलग स्वतन्त्र तरल पदार्थ नहीं है । लैनिनने विरोधको द्वंद्ववादका सार कहा है । केवल परिमाणात्मक परिवर्तन ही एक खास सीमापर होने पर गुणात्मक भेदोंमें बदल जाता है ।"
समय एक ही
ऋण है, वही
जड़वादका एक और स्वरूप :
कर्नल इंगरसोल प्रसिद्ध विचारक और निरीश्वरवादी थे । ने अपने व्याख्यानमें लिखते हैं कि मेरा एक सिद्धान्त है और उसके चारों कोनों पर रखनेके लिए मेरे पास चार पत्थर है । पहला शिलान्यास है किपदार्थ रूप नष्ट नहीं हो सकता, अभावको प्राप्त नहीं हो सकता । दूसरा शिलान्यास है कि गति-शक्तिका विनाश नहीं हो सकता, वह अभावको
१ स्वतन्त्रचिन्तन पृ० २१४-१५ ।