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________________ ११४ जैनदर्शन हो सकता। प्रत्येक वस्तुकी घटनामें दो प्रकारसे परिवर्तन होता है। एक तो यह है कि वस्तुमें स्वाभाविक रीतिसे परिवर्तन होता है। दूसरा यह कि वस्तुका उसके चारों ओरको परिस्थितियोंका प्रभाव पड़नेसे परिवर्तन होता है । प्रत्येक वस्तु दूसरी वस्तुसे जुड़ी या संलग्न रहती है। यह संलग्नता तीन प्रकारको होतो है-एक वस्तुका चारों तरफकी वस्तुओंसे सम्बन्ध रहता है, दूसरी वह वस्तु जिस वस्तुसे उत्पन्न हुई है उसके साथ कार्यकारण-सम्बन्धसे जुड़ी रहती है। तीसरी उस वस्तुको घटनाके गर्भमें दूसरी घटना रहती है और वह वस्तु तीसरी घटनाके गर्भमें रहती है। ये जो सारे वस्तुओंके सम्बन्ध है उनको ठीकसे जानकारी हो जाने पर यह भ्रान्ति या आशंका दूर हो जाती है कि वस्तुओंकी गति किंवा क्रियाके लिए कोई पहला प्रवर्तक चाहिए। कोई भी क्रिया पहली नहीं हुआ करती। प्रत्येक गतिसे किंवा क्रियासे पूर्व दूसरी गति और क्रिया रहती है। इस क्रियाका स्वरूप एक स्थानसे दूसरे स्थानपर जाना ही नहीं होता । क्रिया-शक्तिका केवल स्थानान्तर होना या चलायमान होना ही स्वरूप नहीं है । बीजका अँखुआ बनता है और अंखुएका वृक्ष बन जाता है, ऑक्सीजन और हॉइड्रोजनका पानी बनता है, प्रकाशके अणु बनते हैं अथवा लहरें बनती है, यह सारा बनना और होना भी क्रिया ही है । इस प्रकारकी क्रिया वस्तुका मूलभूत स्वभाव है। वह यदि न रहता, तो जो पहली वार गति देता है उसके लिए भी वस्तुमें गति उत्पन्न करना सम्भव न होता । विश्व स्वयं प्रेरित है। उसे किसी बाह्य प्रेरककी आवश्यकता नहीं है। (४) चौथा सिद्धान्त यह है कि रचना, योजना, व्यवस्था, नियमबद्धता अथवा सुसंगति वस्तुका मूलभूत स्वभाव है। हम जब भी किसी वस्तुका, किंवा वस्तुसमुदायका वर्णन करते हैं तब वस्तुओंको रचना, किंवा व्यवस्थाका ही वर्णन किया करते हैं । वस्तुमें योजना या व्यवस्था नहीं, इसका अर्थ यही होता है कि वस्तु ही नहीं । वस्तु है, इस कथनका यही
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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