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________________ ११३ लोकव्यवस्था नित्य निर्बाध रूपसे चलता रहता है। प्रत्येक सत् वस्तु किसी-न-किसी अन्य सद् वस्तुमेंसे ही निर्मित होती है, सद्वस्तुसे ही बनी होती है, और किसी सद्वस्तुके आंखसे ओझल हो जाने पर दूसरी सद्वस्तुका निर्माण होता है ? जिस एक वस्तुमेंसे दूसरी वस्तु उत्पन्न होती है उसे द्रव्य कहते हैं । जिससे वस्तुएँ बनती हैं और जिसके गुण-धर्म होते है वह द्रव्य है । द्रव्य और गुणोंका समुच्चय जगत है । यह जगत कार्य-कारणोंकी सतत परम्परा है। प्रत्येक वस्तु या घटना अपनेसे पूर्ववर्ती वस्तु या घटनां का कार्य होती है, तथा आगेकी घटनाओंका कारण । प्रत्येक घटना कार्यकारणभावको अनादि एवं अनन्त मालाका एक मनका है। कार्यकारणभावके विशिष्ट नियमसे प्रत्येक घटना एक-दूसरेके साथ बँधी रहती है। ( ३ ) तीसरा मिद्धान्त है कि प्रत्येक वस्तुमें स्वभावसिद्ध गति-शक्ति किंवा परिवर्तन-शक्ति अवश्य रहती है। अणुरूप द्रव्योंका जगत बना करता है । उन अणुओंको आपसमें मिलने तथा एक-दूसरसे अलग-अलग होनेके लिए जो गति मिलती रहती है वह उनका स्वभावधर्म है। उनको परिचालित करनेवाला, उनको इकट्ठा करनेवाला और अलग-अलग करनेवाला अन्य कोई नहीं है । इस विश्वमें जो प्रेरणा या गति है, वह वस्तुमात्रके स्वभावमेंसे निर्मित होती है । एकके बाद दूसरी गतिकी एक अनादि परंपरा इस विश्वमें विद्यमान है। यह प्रश्न ठोक नहीं है कि 'प्रारम्भमें इस विश्वमें किसने गति उत्पन्न को' । 'प्रारम्भमें' शब्दोंका अभिप्राय उस कालसे है जब गति नहीं थी, अथवा किसी प्रकारका कोई परिवर्तन नहीं था। ऐसे कालको तर्कसम्मत कल्पना नहीं की जा सकती जब कि किसी प्रकारका कोई भी परिवर्तन न रहा हो। ऐसे कालकी कल्पना करनेका अर्थ तो यह मानना हुआ कि एक समय था, जब सर्वत्र सर्वशन्यता थी। जब हम यह कहते हैं कि कोई वस्तु है, तो वह निश्चय ही कार्यकारणभावसे बंधी रहती है। इसीलिए गति और परिवर्तनका रहना आवश्यक हो जाता है। सर्वशून्य स्थितिमेंसे कुछ भी उत्पन्न नहीं
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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