________________
११२
जैनदर्शन
है तो ठीक है, वह भी उसके परिणमन में निमित्त हो जायगा । यहाँ तो परस्पर सहकारिताकी खुली स्थिति है।
कर्मकी कारणता :
जीवोंके प्रतिक्षण जो संस्कार संचित होते हैं वे ही परिपाककालमें कर्म कहलाते हैं । इन कर्मोंकी कोई स्वतंत्र कारणता नहीं है । उन जीवोंके परिणमनमें तथा उन जीवोंसे सम्बद्ध पुद्गलोंके परिणमनमें वे संस्कार उसी तरह कारण होते हैं जिस तरह एक द्रव्य दूसरे द्रव्यमें । अर्थात् अपने भावोंकी उत्पत्तिमें वे उपादान होते हैं और पुद्गलद्रव्य या जीवान्तरके परिणमनमें निमित्त । समग्र लोकको व्यवस्था या परिवर्तनमें कोई कर्म नामका एक तत्त्व महाकारण बनकर बैठा हो, यह स्थिति नहीं है ।
"
इस तरह काल, आत्मा, स्वभाव, नियति यदृच्छा और भूतादि अपनी-अपनी मर्यादामें सामग्रीके घटक होकर प्रतिक्षण परिवर्तमान इस जगतके प्रत्येक द्रव्यके परिणमनमें यथासंभव निमित्त और उपादान होते रहते हैं । किसी एक कारणका सर्वाधिपत्य जगतके अनन्त द्रव्यों पर नहीं हैं । आधिपत्य यदि हो सकता है तो प्रत्येक द्रव्यका केवल अपनी ही गुण और पर्यायोंपर हो सकता है ।
जड़वाद और परिणामवाद :
वर्तमान जड़वादियोंने विश्वके स्वरूपको समझाते समय इन चार सिद्धान्तोंका निर्णय किया है ।
( १ ) ज्ञाता और ज्ञेय अथवा समस्त सवस्तु नित्य परिवर्तनशील है । वस्तुओंका स्थान बदलता रहता है। उनके घटक बदलते रहते हैं और उनके गुण-धर्म बदलते रहते हैं परन्तु परिवर्तनका अखण्ड प्रवाह चालू है ।
( २ ) दूसरा सिद्धान्त यह है कि सद्वस्तुका सम्पूर्ण विनाश नहीं होता और सम्पूर्ण अभावमेंसे सद् वस्तु उत्पन्न नहीं होती । यह क्रम