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जैनदर्शन पदार्थ नहीं था और असत्से ही सत्की उत्पत्ति हुई है। तो दूसरे ऋषि सोचते है कि असत्से सत् कैसे हो सकता है ? अतः पहले भी सत् ही था और सत्से ही सत् हुआ है। तो तीसरे ऋषिका चिंतन सत् और असत् उभयकी ओर जाता है। चौथा ऋषि उस तत्त्वको, जिससे इस जगतका विकास हुआ है, वचनोंके अगोचर कहता है । तात्पर्य यह है कि सृष्टिको व्यवस्थाके सम्बन्धमें आज तक सहस्रों चिन्तकोंने अनेक प्रकारके विचार प्रस्तुत किये है।
अव्याकृतवाद:
भ० बुद्धसे 'लोक सान्त है या अनन्त, शाश्वत है या अशाश्वत, जीव और शरीर भिन्न है या अभिन्न, मरनेके बाद तथागत होते है या नहीं ?' इस प्रकारके प्रश्न जब मोलुक्यपुत्रने पूँछे तो उन्होंने इनको अव्याकृत कोटिमे डाल दिया और कहा कि मैने इन्हे अव्याकृत इसलिए कहा है कि 'उनके बारेमें कहना सार्थक नही है, न भिक्षुचय्याँके लिए और न बह्मचर्यके लिए ही उपयोगी है, न यह निर्वेद, शान्ति, परमज्ञान और निर्वाणके लिए आवश्यक ही है ।' आत्मा आदिके सम्बन्धमे बुद्धकी यह अव्याकृतता हमें सन्देहमें डाल देती है। जब उस समयके वातावरणमे इन दार्शनिक प्रश्नोंकी जिज्ञासा सामान्यसाधकके मनमे भी उत्पन्न होती थी और इसके लिये बाद तक रोपे जाते थे, तब बुद्ध जैसे व्यवहारी चिन्तकका इन प्रश्नोंके सम्बन्धमें मौन रहना रहस्यसे खाली नहीं है। यही कारण है कि आज बौद्ध तत्त्वज्ञानके सम्बन्धमें अनेक विवाद उत्पन्न हो गए है। कोई बौद्धके निर्वाणको शून्यरूप या अभावात्मक मानता है, तो कोई उसे सद्भावात्मक । आत्माके सम्बन्धमें बुद्धका यह मत तो स्पष्ट था कि वह न तो उपनिषद्वादियोंकी तरह शाश्वत ही है और न भूतवादियोंकी तरह सर्वथा उच्छिन्न होनेवाली ही है। अर्थात् उन्होंने आत्माको न ज्ञाश्वत माना और न उच्छिन्न । इस अशाश्वतानुच्छेदरूपी उभयप्रतिषेधके होनेपर भी बुटका