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लोकव्यवस्था
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भूतवाद :
भूतवादी पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु इस भूतचतुष्टयसे ही चेतनअचेतन और मूर्त-अमूर्त सभी पदार्थोकी उत्पत्ति मानते हैं । चेतना भी इनके मतसे पृथिव्यादि भूतोंकी ही एक विशेष परिणति है, जो विशेष प्रकारकी परिस्थितिमें उत्पन्न होती है और उस परिस्थतिके विखर जानेपर वह वहीं समाप्त हो जातो | जैसे कि अनेक प्रकारके छोटे-बड़े पुर्जोंसे एक मशीन तैयार होती है और उन्हींके परस्पर संयोगसे उसमें गति भी आ जाती है और कुछ समयके बाद पुर्जोंके घिस जानेपर वह टूटकर विखर जाती है, उसी तरहका यह जीवनयंत्र है । यह भूतात्मवाद उपनिषद कालसे ही यहाँ प्रचलित है ।
इसमें विचारणीय बात यही है कि इस भौतिक पुतले में, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, ज्ञान, जिजीविषा और विविध कलाओंके प्रति जो नैसर्गिक झुकाव देखा जाता है, वह अनायास कैसे आ गया ? स्मरण ही एक ऐसी वृत्ति है, जो अनुभव करनेवालेके चिरकालस्थायी संस्कारकी अपेक्षा रखती है ।
विकासवाद के सिद्धान्त के अनुसार जीवजातिका विकास मानना भी भौतिकवादका एक परिष्कृत रूप हैं । इसमें क्रमश: अमीवा, घोंघा आदि बिना रीढ़के प्राणियोंसे, रीढ़दार पशु और मनुष्योंकी सृष्टि हुई। जहाँ तक इनके शरीरोंके आनुवंशिक विकासका सम्बन्ध है वहाँ तक इस सिद्धान्तकी संगति किसी तरह खींचतान करके बैठाई भी जा सकती है, पर चेतन और अमूर्तिक आत्माकी उत्पत्ति, जड़ और मूर्तिक भूतोंसे कैसे सम्भव हो सकती है ?
इस तरह जगतको उत्पत्ति आदिके सम्बन्धमें काल, स्वभाव, नियति, यदृच्छा, कर्म, पुरुष और भूत इत्यादिको कारण माननेकी विचार धाराएँ जबसे इस मानव के जिज्ञासा - नेत्र खुले, तबसे बराबर चली आतीं हैं । ऋग्वेदके एक ऋषि तो चकित होकर विचारते हैं कि सृष्टिके पहले यहाँ कोई सत्