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लोकव्यवस्था
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आत्मा किस रूप था, यह स्पष्ठ नहीं हो पाता । इसीलिए आज बुद्धके दर्शनको अशाश्वतानुच्छेदवाद कहा जाता है । पाली साहित्यमें हम जहाँ बुद्धके आर्यसत्योंका सांगोपांग विधिवत् निरूपण देखते हैं, वहाँ दर्शनका स्पष्ट वर्णन नहीं पाते ।
उत्पाददित्रयात्मकवाद :
निग्गंथ नाथपुत्त वर्धमान महावीरने लोकव्यवस्था और द्रव्योंके स्वरूपके सम्बन्धमें अपने सुनिश्चित विचार प्रकट किये है । उन्होंने षट्द्द्रव्यमय लोक तथा द्रव्योंके उत्पादव्यय- ध्रौव्यात्मक स्वरूपको बहुत स्पष्ट और सुनिश्चित पद्धति से बताया। जैसा कि इस प्रकरणके शुरू में मैं लिख चुका हूँ । प्रत्येक वर्तमान पर्याय अपने समस्त अतीत संस्कारोंका परिवर्तित पुञ्ज है और है अपनी समस्त भविष्यत् योग्यताओंका भंडार । उस प्रवहमान पर्यायपरम्परामें जिस समय जैसी कारणसामग्री मिल जाती है, उस समय उसका वैसा परिणमन उपादान और निमित्तके बलाबलके अनुसार होता जाता है । उत्पाद, व्यय, और धौव्यके इस सार्वद्रव्यिक और सार्वकालिक नियमका इस विश्वमें कोई भी अपवाद नहीं है । प्रत्येक सत्को प्रत्येक समय अपनी पर्याय बदलनी ही होगी, चाहे आगे आनेवाली पर्याय सदृश, असदृश, अल्पसदृश, अर्धसदृश या विसदृश ही क्यों न हो। इस तरह अपने परिणामी स्वभावके कारण प्रत्येक द्रव्य अपनी उपादानयोग्यता और सन्निहित निमित्तसामग्रीके अनुसार पिपीलकाक्रम या मेंढककुदानके रूपमें परिवर्तित हो ही रहा है ।
दो विरुद्ध शक्तियाँ :
द्रव्यमें उत्पादशक्ति यदि पहले क्षणमें पर्यायको उत्पन्न करती है तो विनाशशक्ति उस पर्यायका दूसरे क्षणमें नाश कर देती है। यानी प्रतिसमय यदि उत्पादशक्ति किसी नूतन पर्यायको लाती है तो विनाशशक्ति उसी समय पूर्व पर्यायको नाश करके उसके लिए स्थान खाली कर देती है ।