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जैनदर्शन का उपयुक्त समयमें विकास करा लेना, यही नियतिके बीच पुरुषार्थका कार्य है । इस पुरुषार्थसे कर्म भी एक हद तक नियन्त्रित होते हैं । यहच्छावाद: __यदृच्छावादका अर्थ है-अटकलपच्चू । मनुष्य जिस कार्यकारण-परम्पराका समान्य ज्ञान भी नहीं कर पाता है उसके सम्बन्धमें वह यदृच्छाका सहारा लेता है। वस्तुतः यदृच्छावाद उस नियति और ईश्वरवादके विरुद्ध एक प्रतिशब्द है, जिनने जगतको नियन्त्रित करनेका रूपक बांधा था। यदि यदृच्छाका अर्थ यह है कि प्रत्येक कार्य अपनी कारणसामग्रीसे होता है और सामग्रीको कोई बन्धन नहीं कि वह किस समय, किसे, कहाँ, कैसे रूपमें मिलेगी, तो यह एक प्रकारसे वैज्ञानिक कार्यकारणभावका ही समर्थन है। पर यदृच्छाके भीतर वैज्ञानिकता और कार्यकारणभाव दोनोंकी ही उपेक्षाका भाव है। पुरुषवाद:
'पुरुष ही इस जगतका कर्ता, हर्ता और विधाता है' यह मत सामान्यतः पुरुषवाद कहलाता है। प्रलय कालमें भी उस पुरुषकी ज्ञानादि शक्तियां अलुप्त रहती हैं । 'जैसे कि मकड़ी जालेके लिए और चन्द्रकान्तमणि जलके लिए, तथा वटवृक्ष प्ररोह-जटाओंके लिए कारण होता है उसी तरह पुरुष समस्त जगतके प्राणियोंकी सृष्टि, स्थिति और प्रलयमें निमित्त होता है । पुरुषवादमें दो मत सामान्यतः प्रचलित हैं । एक तो है ब्रह्मवाद, जिसमें ब्रह्म ही जगत्के चेतन-अचेतन, मूर्त और अमूर्त सभी पदार्थोंका उपादान कारण होता है। दूसरा है ईश्वरवाद, जिसमें वह स्वयंसिद्ध जड़ और चेतन द्रव्योंके परस्पर संयोजनमें निमित्त होता है।
१. “ऊणंनाभ इवांशूनां चन्द्रकान्त इवाम्भसाम् । प्ररोहाणामिव प्लक्षः स हेतुः सर्वजन्मिनाम् ॥"
-उपनिषत् , उद्धृत प्रमेयक० ५० ६५ ।