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________________ लोकव्यवस्था १०५. ब्रह्मवादमें एक हो तत्त्व कैसे विभिन्न पदार्थोंके परिणमनमें उपादान बन सकता है ? यह प्रश्न विचारणीय है । आजके विज्ञानने अनन्त एटमकी स्वतन्त्र सत्ता स्वीकार करके उनके परस्पर संयोग और विभागसे इस विचित्र सृष्टिकी उत्पत्ति मानी है । यह युक्तिसिद्ध घी है और अनुभवगम्य भी । केवल माया कह देने मात्रसे अनन्त जड़ पदार्थ, तथा अनन्त चेतनआत्माओं का पारस्परिक यथार्थ भेद व्यक्तित्व, नष्ट नहीं किया जा सकता । जगतमें अनन्त आत्माएँ अपने-अपने संस्कार और वासनाओंके अनुसार विभिन्न पर्यायोंको धारण करतीं हैं । उनके व्यक्तित्व अपने-अपने हैं । एक भोजन करता है तो तृप्ति दूसरेको नहीं होती । इसी तरह जड़ पदार्थोंके परमाणु अपना स्वतंत्र अस्तित्व रखते हैं । अनन्त प्रयत्न करनेपर भी दो परमाणुओंकी स्वतंत्र सत्ता मिटाके उनमें एकत्व नहीं लाया जा सकता । अतः जगतमें प्रत्यक्षसिद्ध अनन्त सत्व्यक्तियोंका अपलाप करके केवल एक पुरुषको अनन्त कार्योंके प्रति उपादान मानना कोरी कल्पना ही है । इस अद्वैतैकान्त में कारण और कार्यका, कारक और क्रियाओं का, पुण्य और पाप कर्मका, सुख-दुःख फलका, इहलोकके और परलोकका, विद्या और अविद्याका तथा बन्ध और मोक्ष आदिका वास्तविक भेद ही नहीं रह सकता । अतः प्रतीतिसिद्ध जगतव्यवस्थाके लिए ब्रह्मवाद कथमपि उचित सिद्ध नहीं होता । सकल जगतमें 'सत्' 'सत्' का अन्वय देखकर एक 'सत्' तत्त्वकी कल्पना करना और उसे हो वास्तविक मानना प्रतीतिविरुद्ध है । जैसे विद्यार्थीमण्डलमें 'मंडल' अपने-आपमें कोई चीज नहीं है, किन्तु स्वतंत्र सत्तावाले अनेक विद्यार्थियोंको सामूहिक रूपसे व्यवहार करनेके लिये एक 'मण्डल' की कल्पना कर ली जाती है, इसमें तत्तत् विद्यार्थी तो परमार्थसत् है, एक मण्डल नहीं; उसी तरह अनेक सद् व्यक्तियोंमें कल्पित एक सत्त्व व्यवहारसत्य ही हो सकता है, परमार्थसत्य नहीं । १. देखो - अप्तमीमांसा २१–६ ।
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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