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लोकव्यवस्था
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कर्मो का फल देना, फलकालको सामग्रीके ऊपर निर्भर करता है । जैसे एक व्यक्तिके असाताका उदय आता है, पर वह किसी साधुके सत्संग में बैठा हुआ तटस्थभावसे जगत्के स्वरूपको समझकर स्वात्मानंदमें मग्न हो रहा है । उस समय आनेवाली असाताका उदय उस व्यक्तिको विचलित नहीं कर सकता, किन्तु वह बाह्य असाताकी सामग्री न होनेसे बिना फल दिये ही झड़ जायगा । कर्म अर्थात् पुराने संस्कार । वे संस्कार अबुद्ध व्यक्तिके ऊपर ही अपना कुत्सित प्रभाव डाल सकते हैं, ज्ञानीके ऊपर नहीं । यह तो बलाबलका प्रश्न है । यदि आत्मा वर्तमानमें जाग्रत है तो पुराने संस्कारोंपर विजय पा सकता है और यदि जाग्रत नहीं है तो वे कुसंस्कार ही फूलते-फलते जायगें । आत्मा जबसे चाहे तबसे नया कदम उठा सकता है और उसी समयसे नवनिर्माणको धारा प्रारम्भ कर सकता है । इसमें न किसी ईश्वरकी प्रेरणाको आवश्यकता है और न " कर्मगति टाली नाहि टलै" के अटल नियमकी अनिवार्यता ही है ।
जगत्का अणु — परमाणु ही नहीं किन्तु चेतन - आत्माएं भी प्रतिक्षण अपने उत्पाद-व्यय-धन्य स्वभावके कारण अविराम गति से पूर्वपर्यायको छोड़ उत्तर पर्यायको धारण करती जा रही हैं । जिस क्षण जैसी बाह्य और आभ्यन्तर सामग्री जुटती जाती है उसीके अनुसार उस क्षणका परिगमन होता जाता है । हमें जो स्थूल परिणमन दिखाई देता है वह प्रतिक्षणभावी असंख्य सूक्ष्म परिणमनोंका जोड़ और औमत है । इसीमें पुराने संस्कारोंकी कारणसामग्री के अनुसार मुगति या दुर्गति होती जाती है । इसी कारण सामग्रोके जोड़-तोड़ और तरतमतापर हो परिणमनका प्रकार निश्चित होता है । वस्तुके कभी सदृश, कभी विसदृश, अल्पसदृश, अर्धसदृश और असदृश आदि विविध प्रकारके परिणमन हमारी दृष्टिसे बराबर गुजरते हैं । यह निश्चित है कि कोई भी कार्य अपने कार्यकारणभावको उल्लंघन करके उत्पन्न नहीं हो सकता ताएँ विकसित होनेको प्रतिसमय तैयार बैठी हैं,
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द्रव्यमें सैकड़ों ही योग्यउनमें से उपयुक्त योग्यता