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जैनदर्शन
दोनों बंधी हैं, किन्तु किसीने अपने पुरुषार्थसे साताकी प्रचुर सामग्री उपस्थित की है तथा असने चिचको सुसमाहित किया है तो उसको आनेचाला असाताका उदय फलविपाकी न होकर प्रदेशविपाकी ही होगा । स्वर्गमें असाताके उदयको बाह्य सामग्री न होनेसे असाताका प्रदेशोदय या उसका सातारूपमें परिणमन होना माना जाता है। इसी तरह नरकमें केवल असाताकी सामग्री होनेसे वहाँ साताका या तो प्रदेशोदय ही होगा या उसका असातारूपसे परिणमन हो जायगा ।
जगत्के समस्त पदार्थ अपने-अपने उपादान और निमित्तके सुनिश्चित कार्यकारणभाव के अनुसार उत्पन्न होते हैं और सामग्रीके अनुसार जुटते और बिखरते हैं । अनेक सामाजिक और राजनैतिक मर्यादाएँ साता और असाताके साधनोंकी व्यवस्थाएँ बनाती हैं । पहले व्यक्तिगत संपत्ति और साम्राज्यका युग था तो उसमें उच्चतम पद पानेमें पुराने साताके संस्कार कारण होते थे, तो अब प्रजातंत्र के युगमें जो भी उच्चतम पद है, उन्हें पाने में संस्कार सहायक होंगे ।
जगत्के प्रत्येक कार्यमें किसी-न-किसीके अदृष्टको निमित्त मानना न तर्कसिद्ध है और न अनुभवगम्य ही । इस तरह यदि परम्परासे कारणोंकी गिनती की जाय तो कोई व्यवस्था ही नहीं रहेगी । कल्पना कीजिए— आज कोई व्यक्ति नरकमें पड़ा हुआ असाताके उदयमें दुःख भोग रहा है और एक दरी किसी कारखाने में बन रही है जो २० वर्ष बाद उसके उपभोगमें आयगी और साता उत्पन्न करेगी तो आज उस दरीमें उस नरकस्थित प्राणीके अदृष्टको कारण माननेमें बड़ी विसंगति उत्पन्न समस्त जगत्के पदार्थ अपने-अपने साक्षात् उपादान और होते है और यथासम्भव सामग्री के अन्तर्गत होकर प्राणियों के सुख और दुःखमें तत्काल निमित्तता पाते रहते है । उनकी उत्पत्ति में किसी-न-किसीके अदृष्टको जोड़ने की न तो आवश्यकता ही है और न उपयोगिता हो और न कार्यकारणव्यवस्थाका बल ही उसे प्राप्त है ।
होती है । अतः निमित्तोंसे उत्पन्न