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________________ लोकव्यवस्था १०१ प्रतिनिधि पुद्गल सम्बन्धित होते जाते हैं और पुराने झड़ते जाते हैं। इस तरह यह कर्मबन्धनका सिलसिला तब तक बराबर चालू रहता है जब तक आत्मा सभी पुरानी वासनाओंसे शून्य होकर पूर्ण वीतराग या सिद्ध नहीं हो जाता। कर्मविषाक: विचारणीय बात यह है कि कर्मपुद्गलोंका विपाक कैसे होता हैं ? क्या कर्मपुद्गल स्वयमेव किसी सामग्रीको जुटा लेते है और अपने आप फल दे देते है या इसमें कुछ पुरुषार्थ को भी अपेक्षा है ? अपने विचार, वचनव्यवहार और क्रियाएं अन्ततः संस्कार तो आत्मामें ही उत्पन्न करती हैं और उन संस्कारोंको प्रवोध देनेवाले पुद्गलद्रव्य कार्मणशरीरसे बंधते है । ये पुद्गल शरीरके बाहरसे भी खिचते है और शरीरके भीतरसे भी। उम्मीदवार कर्मयोग्य पुद्गलोंमेसे कर्म बन जाते है । कमके लिए एक विशेष प्रकारके सूक्ष्म और असरकारक पुद्गलद्रव्योंकी अपेक्षा होती है। मन, वचन और कायकी प्रत्येक क्रिया, जिसे योग कहते है, परमाणुओंमें हलनचलन उत्पन्न करती है और उसके योग्य परमाणुओंको बाहर भीतरसे खींचती जाती है। यों तो शरीर स्वयं एक महान् पुद्गल पिंड है। इसमें असंख्य परमाणु श्वासोच्छ्वास तथा अन्य प्रकारसे शरीरमें आते-जाते रहते है । इन्हींमेसे छटकर कर्म बनते जाते है । जब कर्मके परिपाकका समय आता है, जिसे उदयकाल कहते है, तब उसके उदयकालमें जैसी द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी सामग्री उपस्थित होती है वैसा उसका तीव्र, मध्यम और मन्द फल होता है। नरक और स्वर्गमें औसतन असाता और साताकी सामग्री निश्चित है। अतः वहाँ क्रमशः असाता और साताका उदय अपना फलोदय करता है और साता और असाता प्रदेशोदयके रूपमें अर्थात् फल देनेवाली सामग्रीको उपस्थिति न होनेसे बिना फल दिये ही झड़ जाते है । जीवमें साता और असाता
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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