________________
लोकव्यवस्था
इस कर्मवादका मूल प्रयोजन है जगत्की दृश्यमान विषमताकी समस्याको सुलझाना । जगत्को विचित्रताका समाधान कर्मके माने बिना हो नहीं सकता । आत्मा अपने पूर्वकृत या इहकृत कर्मोंके अनुसार वैसे स्वभाव और परिस्थितियोंका निर्माण करता है, जिसका असर बह्यसामग्रीपर भी पड़ता है । उसके अनुसार उसका परिणमन होता है । यह एक विचित्र बात है कि पाँच वर्ष पहले के बने खिलोनोंमें अभी उत्पन्न भी नहीं हुए बच्चेका अदृष्ट कारण हो । यह तो कदाचित् समझमें भी आ जाय, कि कुम्हार घड़ा बनाता है और उसे बेचकर वह अपनी आजीविका चलाता है, अतः उसके निर्माण में कुम्हारका अदृष्ट कारण भी हो, पर उस व्यक्तिके अदृष्टको घड़ेकी उत्पत्तिमें कारण मानना, जो उसे खरीद कर उपयोग में लागा, न तो युक्तिसिद्ध ही है और न अनुभवगम्य ही । फिर जगत् में प्रतिक्षण अनन्त ही कार्य ऐसे उत्पन्न और नष्ट हो रहे है, जो किसीके उपयोगमें नहीं आते । पर भौतिक सामग्री के आधारसे वे बराबर परस्पर परिणत होते जाते है ।
29
कार्यमा प्रति अदृष्टको कारण माननेके पीछे यह ईश्वरवाद छिपा हुआ है कि जगत् के प्रत्येक अणु - परमाणुको क्रिया ईश्वरकी प्रेरणासे होती है, बिना उसको इच्छाके पत्ता भी नहीं हिलता । और संसार की विषमता और निर्दयतापूर्ण परिस्थितियोंके समाधानके लिए प्राणियोंके अदृष्टको आड़ लेना, जब आवश्यक हो गया तब 'अर्थात् ' ही अदृष्टको जन्यमात्रकी कारणकोटिमें स्थान मिल गया; क्योंकि कोई भी कार्य किसीन-किसीके साक्षात् या परम्परासे उपयोगमें आता ही है और विषमता और निर्दयतापूर्ण स्थितिका घटक होता ही है । जगत्में परमाणुओंके परस्पर संयोग-विभागसे बड़े-बड़े पहाड़, नदी, नाले, जंगल और विभिन्न प्राकृतिक दृश्य बने हैं । उनमें भी अदृष्टको और उसके अधिष्टाता किसी चेतनको कारण मानना वस्तुतः अदृष्टकल्पना ही है । 'दृष्टकारणवैफल्ये अदृष्टपरिकल्पनोपपत्तेः- जब दृष्टकारणको संगति न बैठे तो अदृष्ट हेतुकी
७