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जैनदर्शन कल्पना की जाती है', यह दर्शनशास्त्रका न्याय है। दो मनुष्य समान परिस्थितियोंमें उद्यम और यत्न करते हैं पर एककी कार्यकी सिद्धि देखी जाती है और दूसरेको सिद्धि तो दूर रही, उलटा नुकसान होता है, ऐसी दशामें 'कारणसामग्री की कमी या विपरीतताकी खोज न करके किसी अदृष्टको कारण मानना दर्शनशास्त्रको युक्तिके क्षेत्रसे बाहर कर मात्र कल्पनालोकमें पहुँचा देना है । कोई भी कार्य अपनी कारणसामग्रीको पूर्णता और प्रतिबन्धककी शून्यतापर निर्भर करता है। वह कारणसामग्रो जिस प्रकारकी सिद्धि या असिद्धिके लिये अनुकूल बैठतो है वैसा कार्य अवश्य ही उत्पन्न होता है । जगत्के विभिन्न कार्यकारणभाव सुनिश्चित हैं । द्रव्योंमें प्रतिक्षण अपनी पर्याय बदलनेकी योग्यता स्वयं है । उपादान और निमित्त उभयसामग्री जिस प्रकारकी पर्यायके लिये अनुकूल होती है वैसी ही पर्याय उत्पन्न हो जाती है। 'कर्म या अदृष्ट जगत्में उत्पन्न होनेवाले यावत् कार्योंके कारण होते हैं' इस कल्पनाके कारण हो अदृष्टका पदार्थोंसे सम्बन्ध स्थापित करनेके लिए आत्माको व्यापक मानना पड़ा। कर्म क्या है ?
फिर कर्म क्या है ? और उसका आत्माके साथ सम्बन्ध कैसे होता है ? उसके परिपाककी क्या सीमा है ? इत्यादि प्रश्न हमारे सामने हैं ? वर्तमानमें आत्माको स्थिति अर्धमौतिक जैसी हो रही है। उसका ज्ञान
१. 'नवनीत' जनवरी ५३ के अंकमें 'साइंसवीकली' से एक 'टुथडग' का वर्णन दिया है। जिसका इंजेक्शन देनेसे मनुष्य साधारणतया सत्य बात बता देता है। 'नवनीत' नवम्बर ५२ में बताया है कि सोडियम पेटोथल' का इंजेक्शन देने पर भयंकर अपराधी अपना अपराध स्वीकार कर लेता है । इन इंजेक्शनोंके प्रभावसे मनुष्यकी उन ग्रन्थियोंपर विशेष प्रभाव पड़ता है जिनके कारण उसकी झूठ बोलनेकी प्रवृत्ति होती है।