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जैनदर्शन
उसके आधारसे वस्तुव्यवस्था नहीं की जा सकती । वस्तुव्यवस्था तो वस्तुके वास्तविक स्वरूप और परिणमनपर ही निर्भर करती हैं । भावनाएँ चित्तके समाधान के लिये भायों जाती हैं और उनसे वह उद्देश्य सिद्ध हो भी जाता है; पर तत्त्वव्यवस्थाके क्षेत्रमें भावनाका उपयोग नहीं है । वहाँ तो वैज्ञानिक विश्लेषण और तन्मूलक कार्यकारणभावकी परम्पराका ही कार्य है उसीके बलपर पदार्थ के वास्तविक स्वरूपका निर्णय किया जा सकता है । कर्मवाद :
जगत् के प्रत्येक कार्यमें कर्म कारण है। ईश्वर भी कर्मके अनुसार ही फल देता है | बिना कर्म पत्ता भी नहीं हिलता । यह कर्मवाद है, जो ईश्वरके ऊपर आनेवाले विषमताके दोषको अपने ऊपर ले लेता है ओर निरीश्वरवादियोंका ईश्वर बन बैठा है । प्राणीकी प्रत्येक क्रिया कर्मसे होती है । जैसा जिसने कर्म बाँधा है उसके विपाकके अनुसार वैसी-वैसी उसको मति और परिणति स्वयं होती जाती है । पुराना कर्म पकता है और उसीके अनुसार नया बँधता जाता है । यह कर्मका चक्कर अनादिसे है । वैशेषिकके' मतसे कर्म अर्थात् अदृष्ट जगत् के प्रत्येक अणु-परमाणुकी क्रियाका कारण होता है | बिना अदृष्टके परमाणु भी नहीं हिलता। अग्निका जलना, वायुका चलना, अणु तथा मनकी क्रिया सभी कुछ उपभोक्ताओंके अदृष्टसे होते हैं । एक कपड़ा, जो अमेरिकामें बन रहा है, उसके परमाणुओंमें क्रिया भी उस कपड़े पहननेवालेके अदृष्टसे ही हुई है । कर्मवासना, संस्कार और अदृष्ट आदि आत्मामें पड़े हुए संस्कारको ही कहते हैं । हमारे मन, वचन और कायको प्रत्येक क्रिया आत्मापर एक संस्कार छोड़ती है जो दीर्घकाल तक बना रहता है और अपने परिपाक कालमें फल देता है । जब यह आत्मा समस्त संस्कारोंसे रहित हो वासनाशून्य हो जाता है तब वह मुक्त कहलाता है । एक बार मुक्त हो जानेके बाद पुनः कर्मसंस्कार आत्मापर नहीं पड़ते ।