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लोकव्यवस्था अधर्मद्रव्य : ____ जीव और पुद्गलोंकी स्थितिमें अधर्मद्रव्य साधारण कारण होता है, प्रेरक नहीं। जैसे ठहरनेवाले पथिकोंको छाया ।
आकाशद्रव्यः
समस्त चेतन-अचेतन द्रव्योंको स्थान देता है और अवगाहनका साधारण कारण होता है, प्रेरक नहीं । आकाश स्वप्रतिष्ठित है ।
कालद्रव्य :
समस्त द्रव्योंके वर्तना, परिणमन आदिका साधारण निमित्त है । पर्याय किसी-न-किसी क्षणमें उत्पन्न होती तथा नष्ट होती है, अतः 'क्षण' समस्त द्रव्योंकी पर्यायपरिणतिमें निमित्त होता है।
ये चार द्रव्य अरूपी हैं। धर्म, अधर्म और असंख्य कालाणु लोकाकाशव्यापी हैं और आकाश लोकालोकव्य पी अनन्त है।
संसारी जीव और पुद्गल द्रव्योंमें विभाव परिणमन होता है। जीव और पुद्गलका अनादिकालीन सम्बन्ध होनेके कारण जीव संसारीदशामें विभाव परिणमन करता है । इसका सम्बन्ध समाप्त होते ही मुक्तदशामें जीव शुद्ध परिणमनका अधिकारी हो जाता है। ___इस तरह लोकमें अनन्त 'सत्' स्वयं अपने स्वभावके कारण परस्पर निमित्त-नैमित्तिक बनकर प्रतिक्षण परिवर्तित होते हैं। उनमें परस्पर कार्यकारणभाव भी बनते हैं। बाह्य और आभ्यन्तर सामग्रीके अनुसार समस्त कार्य उत्पन्न होते और नष्ट होते हैं। प्रत्येक 'सत्' अपने में परिपूर्ण और स्वतंत्र है । वह अपने गुण और पर्यायका स्वामी है और है अपनी पर्यायोंका आधार । एक द्रव्य दूसरे द्रव्यमें कोई नया परिणमन नहीं ला सकता । जैसी जैसी सामग्री उपस्थित होती जाती है उसके कार्यकारणनियमके अनुसार द्रव्य स्वयं वैसा परिणत होता जाता है। जिस समय कोई