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जैनदर्शन जीवद्रव्यमें जो आत्माएँ कर्मबन्धनको काट कर सिद्ध हो गई हैं उन मुक्त जीवोंका भी सिद्धिके कालसे अनन्तकाल तक सदा शुद्ध ही परिणमन होता है । समान और एकरस परिणमनकी धारा सदा चलती रहती है, उसमें कभी कोई विलक्षणता नहीं आती। रह जाते हैं संसारी जीव और अनन्त पुग्दल, जिनका रंगमंच यह दृश्य विश्व है। इनमें स्वाभाविक और वैभाविक दोनों परिणमन होते हैं । फर्क इतना ही है कि संसारी जीवके एक बार शुद्ध हो जानेके बाद फिर अशुद्धता नहीं आती, जब कि पुद्गलस्कन्ध अपनी शुद्ध दशा परमाणुरूपतामें पहुँचकर भी फिर अशुद्ध हो जाते हैं । पुद्गलकी शुद्ध अवस्था परमाणु है और अशुद्ध दशा स्कन्ध-अवस्था है । पुद्गल द्रव्य स्कन्ध बनकर फिर परमाणु अवस्थामें पहुँच जाते हैं और फिर परमाणुसे स्कन्ध बन जाते हैं। सारांश यह कि संसारी जीव और अनन्त पुद्गल परमाणु भी प्रतिक्षण अपने परिणामी स्वभावके कारण एक दूसरेके तथा परस्पर निमित्त बनकर स्वप्रभावित परिणमनके भी जनक हो जाते हैं। एक हाइड्रोजनका स्कन्ध ऑक्सिजनके स्कन्धसे मिलकर जल पर्यायको प्राप्त हो जाता है। फिर गर्मीका सन्निधान पाकर भाफ बनकर उड़ जाता है, फिर सर्दी पाकर पानी बन जाता है, और इस तरह अनन्त प्रकारके परिवर्तन-चक्रमें बाह्य-आभ्यान्तर सामग्रीके अनुसार परिणत होता रहता है। यही हाल संसारी जीवका है। उसमें भी अपनी सामग्रीके अनुसार गुणपर्यायोंका परिणमन बराबर होता रहता है। कोई भी समय परिवर्तनसे शून्य नहीं होता। इस परिवर्तन-परम्परामें प्रत्येक द्रव्य स्वयं उपादानकारण होता है तथा अन्य द्रव्य निमित्त कारण । धर्मद्रव्य :
जीव और पुद्गलोंकी गति-क्रियामें साधारण उदासीन निमित्त होता है, प्रेरक कारण नहीं । जैसे चलनेको तत्पर मछलीके लिए जल कारण तो होता है, पर प्रेरणा नहीं करता।