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________________ लोकव्यवस्था ७१ होता और न कहने योग्य कोई ऐसा फर्क आता है, जिससे प्रथम क्षणके परिणमनसे द्वितीय क्षणके परिणमनका भेद बताया जा सके । परिणमनका कोई अपवाद नहीं: यहाँ यह प्रश्न स्वाभाविक है कि जब अनादिसे अनन्तकाल तक ये द्रव्य सदा एक-जैसे समान परिणमन करते है, उनमें कभी भी कहीं भी किसी भी रूपमें विसदृशता, विलक्षणता या असमानता नहीं आती तब उनमें परिणमन अर्थात् परिवर्तन कैसे कहा जाय ? उनके परिणमनका क्या लेखा-जोखा हो ? परन्तु जब लोकका प्रत्येक 'मत्' मदा परिणामी है, कटस्थ नित्य नहीं, सदा शाश्वत नहीं; तब सतके इस अपरिहार्य और अनिवार्य नियमका आकाशादि 'सत्' कैसे उल्लंघन कर सकते है ? उनका अस्तित्व ही त्रयात्मक अर्थात् उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यात्मक है। इसका अपवाद कोई भी मत् कभी भी नहीं हो सकता। भले ही उनका परिणमन हमारे शब्दोंका या स्थूल ज्ञानका विषय न हो, पर इस परिणामित्वका अपवाद कोई भी सत् नहीं हो सकता। तात्पर्य यह है कि जब हम एक सत्-पुद्गलपरमाणुमे प्रतिक्षण परिवर्तनको उसके स्कन्धादि कार्यो द्वारा जानते है, एक सत्-आत्मामे ज्ञानादि गुणोंके परिवर्तनको स्वयं अनुभव करते है तथा दृश्य विश्वमे सत्की उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यशीलता प्रमाणसिद्ध है; तब लोकके किसी भी सत्को उत्पादादिसे रहित होनेकी कल्पना ही नहीं की जा सकती। एक मृत्पिड पिंडाकारको छोड़कर घटके आकारको धारण करता है तथा मिट्टी दोनों अवस्थाओंमें अनुगत रहती है। वस्तुके स्वरूपको समझनेका यह एक स्थूल दृष्टान्त है। अतः जगत्का प्रत्येक सत्, चाहे वह चेतन हो या अचेतन, परिणामी-नित्य है, उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यवाला है। वह प्रतिक्षण पर्यायान्तरको प्राप्त होकर भी कभी समाप्त नहीं होता, ध्रुव है ।
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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