SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 108
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७० जैनदर्शन "सव्वेसिं खंधाणं जो अंतो तं वियाण परमाणू । सो सस्सदो असद्दो एक्को अविभागि मुत्तिभवो॥" -पंचा० १७७ । अर्थात्-समस्त स्कन्धोंका जो अन्तिम भेद है, वह परमाणु है। वह शाश्वत है, शब्दरहित है, एक है, सदा अविभागी है और मूर्तिक है । तात्पर्य यह कि परमाणु द्रव्य अखंड है और अविभागी है । उसको छिन्न-भिन्न नहीं किया जा सकता । जहाँ तक छेदन-भेदन सम्भव है वह सूक्ष्म स्कन्धका हो सकता है, परमाणुका नहीं। परमाणुकी द्रव्यता और अखण्डताका सीधा अर्थ है-उसका अविभागी एक सत्ता और मौलिक होना । वह छिद-भिदकर दो सत्तावाला नहीं बन सकता। यदि बनता है तो समझना चाहिए कि वह परमाणु नहीं है । ऐसे अनन्त मौलिक अविभागी अणुओंसे यह लोक ठसाठस भरा हुआ है। इन्हीं परमाणुओंके परस्पर सम्बन्धसे छोटे-बड़े स्कन्धरूप अनेक अवस्थाएं होती हैं। परिणमनोंके प्रकार: ___ सत्के परिणाम दो प्रकारके होते हैं-एक स्वभावात्मक और दूसरा दूसरा विभावरूप। धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाशद्रव्य और अंसख्यात कालाणुद्रव्य ये सदा शुद्ध स्वभावरूप परिणमन करते हैं। इनमें पूर्व पर्याय नष्ट होकर भी जो नयो उत्तर पर्याय उत्पन्न होती है वह सदृश और स्वभावात्मक ही होती है, उसमें विलक्षणता नहीं आती। प्रत्येक द्रव्यमें एक 'अगुरुलघु' गुण या शक्ति है, जिसके कारण द्रव्यको समतुला बनी रहती है, वह न तो गुरु होता है और न लघु । यह गुण द्रव्यकी निजरूपमें स्थिर-मौलिकता कायम रखता है । इसी गुणमें अनन्तभागवृद्धि आदि षड्गुणी हानि-वृद्धि होती रहती है, जिससे ये द्रव्य अपने ध्रौव्यात्मक परिणामी स्वभावको धारण करते हैं और कभी अपने द्रव्यत्वको नहीं छोड़ते। इनमें कभी भी विभाव या विलक्षण परिणमन नहीं
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy