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________________ जैनदर्शन पुरुष प्रमाण है, ग्रन्थविशेष नहीं। इसका अर्थ है शब्द स्वतः प्रमाण न होकर पुरुपके अनुभवको प्रमाणतासे अनुप्राणित होता है। मीमांसकने लौकिक शब्दोंमें वक्ताको गुण और दोपोंकी एक हद तक उपयोगिता स्वीकार करके भी धर्ममें वैदिक शब्दोंको पुरुषके गुण-दोषोंसे मुक्त रखकर स्वतः प्रमाण माना हैं । पहिली बात तो यह है कि जब भाषात्मक शब्द एकान्ततः पुरुषके प्रयत्नसे ही उत्पन्न होते है, अतः उन्हे अपौरुषेय और अनादि मानना ही अनुभवविरुद्ध है तब उनके स्वतः प्रमाण माननेकी बात तो बहुत दूर की है । वक्ताका अनुभव ही शब्दको प्रमाणताका मूल स्रोत है। प्रामाण्यवादके विचारमें मैने इसका विस्तृत विवेचन किया है । साधनकी पवित्रताका आग्रह : भारतीय दर्शनोंमें वादकथाका इतिहास जहाँ अनेक प्रकारसे मनोरंजक है वहाँ उसमें अपनी-अपनी परम्पराकी कुछ मौलिक दृष्टियोंके भी दर्शन होते है । नैयायिकोंने शास्त्रार्थमे जीतनेके लिए छल, जाति और निग्रहस्थान जैसे असद् उपायोंका भी आलम्बन लेकर सन्मार्ग-रक्षाका लक्ष्य सिद्ध करनेकी परम्पराका समर्थन किया है । छल, जाति और निग्रहस्थानोंकी किलेबन्दी प्रतिवादीको किसी भी तरह चुप करनेके लिए की गयी थी। जिसका आश्रय लेकर सदोष साधनवादी भी निर्दोष प्रतिवादीपर कीचड़ उछाल सकता था और उसे पराजित कर सकता था । किन्तु जैनदार्शनिकोंने शासन-प्रभावनाको भी असद् उपायोंसे करना उचित नहीं माना । वे साध्यकी तरह साधनकी पवित्रतापर भी उतना ही जोर देते हैं । सत्य और अहिंसाका ऐकान्तिक आग्रह होनेके कारण उन्होंने वादकथा जैसे कलुषित क्षेत्रमें भी छल, जाति आदिके प्रयोगोंको सर्वथा अन्याय्य कहकर नीतिका सीधा मार्ग दिखाया कि जो भी अपना पक्ष सिद्ध करले, उसकी जय और दूसरेकी पराजय होनी चाहिए। और छल, जाति आदिके प्रयोगकी कुशलतासे जय-पराजयका कोई सम्बन्ध नहीं है । बौद्धोंका भी यही दृष्टिकोण है। (विशेषके लिए देखो, जय-पराजयव्यवस्था प्रकरण )।
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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