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भारतीय दर्शनको जैनदर्शनकी देन
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दार्शनिक युगमें द्रव्यत्वादि सामान्योंकी तरह व्यवहारकल्पित ब्राह्मणत्वादि जातियों का भी उन्हे नित्य, एक और अनेकानुगत मानकर जो समर्थन किया गया है और उनकी अभिव्यक्ति ब्राह्मर्णादि माता-पितासे उत्पन्न होनेके कारण जो बतायी गयी है उनका खण्डन जैन और बौद्धदर्शनके
ग्रन्थोंमें प्रचुरतासे पाया जाता है । इनका सीधा सिद्धान्त है कि मनुष्यों में जब मनुष्यत्व नामक सामान्य हो सादृश्यमूलक है तब ब्राह्मणत्वादि जातियाँ भी सदृश आधार और व्यवहारमूलक ही बन सकतीं है । जिनमें अहिंसा, दया आदि सद्व्रतोंके संस्कार विकसित हों वे ब्राह्मण, पररक्षाकी वृत्तिवाले क्षत्रिय, कृषिवाणिज्यादि व्यापारप्रधान वैश्य और शिल्पमेवा आदिसे आजीविका चलानेवाने शूद्र है । कोई भी शूद्र अपनेमें व्रत आदि सद्गुणोंका विकास करके ब्राह्मण वन सकता है । ब्राह्मणत्वका आधार व्रतसंस्कार है न कि नित्य ब्राह्मणत्व जाति ।
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जैनदर्शनने जहाँ पदार्थ - विज्ञानके क्षेत्रमे अपनी मौलिक दृष्टि रखी है बहाँ समाज-रचना और विश्वशांतिके मूलभूत सिद्धान्तोंका भी विवेचन किया है । उनमें निरीश्वरवाद और वर्ण-व्यवस्थाको व्यवहारकल्पित मानना ये दो प्रमुख है । यह ठीक है कि कुछ संस्कार बंगानुगत होते है, किन्तु उन्हें समाजरचनाका आधार नहीं बनाया जा सकता । सामाजिक और सार्वजनिक साधनोंके विशिष्ट संरक्षणके लिए वर्णव्यवस्थाकी दुहाई नहीं दी जा सकती । सार्वजनिक विकासके अवसर प्रत्येकके लिये समानरूपसे मिलने पर स्वस्थ समाजका निर्माण हो सकता है ।
अनुभवकी प्रमाणता :
धर्मज्ञ और सर्वज्ञके प्रकरणमें लिखा जा चुका है कि श्रमण परम्परामें
१. देखो, प्रमाणवातिकालंकार पृ० २२ । तत्त्वसंग्रह का० ३५७९ । प्रमेयकमलमा० पृ० ४८३ । न्यायकुमु० पृ० ७७० । सम्मति० टी० पृ०६९७| स्या० रत्ना०९५९ । २. 'ब्राह्मणाः व्रतसंस्कारात् - आदिपुराण ३८।४६ ।
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