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जैन अंगशास्त्र के अनुसार मानव-व्यक्तित्व का विकास ७ गीयरइ–ये लोग प्रेमानन्द मे विभोर होकर सगीत मे तन्मय रहते थे।
८ गोअम-ये लोग एक सुन्दर जवान बैल को रगो से चित्रविचित्र करके उसे कौडियो से सजाकर उसके द्वारा लोगो का मनोरजन करते हुए आजीविका कमाते थे। इनका भोजन चावल मात्र था। ___ कस्मार-भिक्खु-ये लोग अपने आराध्यदेव की प्रतिमा लेकर भ्रमण किया करते थे।
१० कुच्चिय-ये लोग लम्बी दाढी तथा म्छे रखते थे।
११ परपरिवाइय-ये लोग अन्य साधुओ की निन्दा किया करते थे।
१२. पिण्डोलग-ये लोग वहुत मैले रहते थे। इनके शरीर मे जू तक रेगने लगती थी। इनके देह से बहुत दुर्गन्ध आती थी। एक पिण्डोलग साधु ने "वेभार" नामक पर्वत पर एक चट्टान के नीचे दव कर अपने को समाप्त कर दिया था।
१३ ससरक्ख-ये लोग इन्द्रजाल विद्या में निपुण होते थे, और बरसात के लिए धूलि का संग्रह कर लिया करते थे। ये नग्न रहते थे तथा हाथ पर ही भोजन करते थे।
१४. वणीमग-ये लोग भोजन के अति लोभी होते थे और अपने को गाक्य आदि का भक्त बताकर भिक्षावृत्ति किया करते थे। अपनी अवस्था व हुत ही करुण बनाकर तथा अनेक प्रकार की चाटुतापूर्ण वाते करके, ये लोगो के हृदय को द्रवीभूत किया करते थे।
१५ वारिभद्रक-ये लोग पानी तथा काई पर जीवन निर्भर रखते थे। ये हमेगा स्नान तथा पगधावन मे ही व्यस्त रहते थे।
१६ वारिखल-ये लोग अपने पात्र को वारह वार मिट्टी से रगडते थे।
सघ तथा शिष्य-परम्परा यो तो जैन-धर्म और जैन-सघ महावीर से भी प्राचीन है, क्योकि तीर्थकर पार्श्वनाथ ने महावीर से भी पहिले उनकी स्थापना की थी। १ ला०. इन०. ए०. इ० , पृ० २१५.