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द्वितीय अध्याय : आदर्श महापुरुष
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किन्तु महावीर के समय तक लोक परिस्थिति इतनी बदल गई थी कि उस प्राचीन जैन सघ का पुनरुद्धार आवश्यक था । महावीर के "वीरसघ" की चतुविध व्यवस्था ने उस आवश्यकता को पूर्ण किया । भगवान् की शरण मे अनेक भव्य प्राणी आए थे । कोई श्रमण हुआ, किसी ने उपासक के व्रत धारण किए । पुरुष ही नही, स्त्रियो को भी सघ मे अपने भाग्य - निर्माण का अवसर प्राप्त हुआ । अनेक रमणियो ने महाव्रत धारण किए और वे आर्यिका वनी । जिनकी गृहस्थी से ममता वनी रही, वे अणुव्रतो का पालन करती हुई अपने विकास मे तत्पर रही।
इस प्रकार महावीर के भक्त दो प्रकार के थे- गृहत्यागी और गृहवासी । गृहवासी भक्त उपासक तथा उपासिकाएँ थी, जो व्रती और अव्रती ( मात्र सम्यग् दृष्टि) दोनो तरह के थे परन्तु गृह त्यागी भक्त जो अधिकतर भगवान् के साथ विहार किया करते थे, श्रमण तथा आर्यिकाएँ थी । अत वीर सघ चतुविध रूप था, जिसके जग थे १ श्रमण, २ आर्यिका, ३ उपासक, ४ उपासिका । १
कल्पसूत्र मे "वीर-सघ" के चारो अगो का उल्लेख मिलता है । उस सघ मे १४ हजार श्रमण थे, जिनमे सवसे प्रधान श्रमण इन्द्रभूति थे । ३६ हजार भिक्षुणी अर्थात् आर्यिकाएँ उस सघ मे थी, जिनमे सब से प्रधान आर्यिका चदना थी । १ लाख ५६ हजार उपासक उस सघ के अग थे, जिनमे सबसे प्रधान उपासक गखगतक थे । ३ लाख १८ हजार उपासिकाएँ उस सघ मे थी, जिनमे सबसे प्रधान उपासिका सुलसा थी ।
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इसके अतिरिक्त उनके सघ मे १४ पूर्वगत ज्ञान के धारी ३०० साधु, अवधिज्ञान के धारी १३०० साधु, केवलज्ञान के धारी ७०० साधु, ७०० ऋद्धिधारी, ५०० मन पर्यय - ज्ञानधारी, ४०० वादीशास्त्रार्थी तथा ८०० एकभवी ( एक भव के बाद मुक्ति पाने वाले ) साधु थे ।
उनके उपदेश को सुनकर वीरागक, वीरया, सजय, एणेयक, सेय, शिव, उदयन 3 और गख इन ८ समकालीन राजाओ ने प्रव्रज्या
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स्थानाग ३६३.
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जैन- सूत्राज् भाग १ ( कल्पसूत्र ), "ला० ऑफ महावीर", पृ० २६७ 3 भगवती सूत्र १२ २.