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जैन अंगशास्त्र के अनुसार मानव-व्यक्तित्व का विकास प्रकार अतिम प्रदेश भी अजीव माना जायगा। इस कारण तुम्हारे मत मे जीव का अभाव हो हो जाएगा। तिष्यगुप्त को गुरु को यह बात समझ में नही आई और वह दुराग्रह के कारण सघ से वहिष्कृत कर दिया गया । ये 'जीवप्रदेशिक धर्माचार्य' कहे जाते थे।
आषाढ़-आपाढ़ एक साधु थे। हृदय-शूल के कारण वे मृत्यु को प्राप्त हुए तथा अपने ही मृत शरीर मे प्रविष्ट होकर वे अपने शिष्यो को पढाते रहे। कार्य पूर्ति के बाद एक दिन शिष्यों से बोले कि "हे शिष्यो, मैं साधु नही, देव हूँ, अत मुझे क्षमा करना कि अब तक मैने तुम लोगो से अपनी स्तुति, वन्दना कराई।" शिष्य अपने आचार्य को असयत (सयमहीन) देव जानकर बड़े आश्चर्यचकित हुए और तव से लेकर वे अवक्तव्य-मतवादी हो गए। उनका कहना था कि “यह नही कहा जा सकता कि अमुक व्यक्ति साधु है अयवा देव, इसी तरह देवता के सम्बन्ध में भी कहा नहीं जा सकता कि वह देव है अथवा अदेव ।" ये "अवक्तव्य-मत-धर्माचार्य' कहे जाते थे। ___अश्वमित्र-इनका मत था कि "प्राणी की उत्पत्ति के वाद उसका सर्वथा नाग हो जाता है, अत सुकृत और दुष्कृत रूप कर्म का वेदन नही हो सकता।" ये “सामुच्छेदिक धर्माचार्य' कहे जाते थे । ___ गंग–ये एक समय उल्लुका नदी पार कर रहे थे, ऊपर सूर्य की उष्णता से सिर में गर्मी लगी तथा नीचे जल की शीतलता से पैर मे ठड। अत. उन्होने सोचा कि यह कहना गलत है कि एक समय मे एक ही क्रिया का वेदन (अनुभवन) होता है। मुझे एक ही समय मे दोनो क्रियाओ का अनुभव हो रहा है। ये "वैक्रिय-धर्माचार्य" कहे जाते थे।
षडुलुक-षडुलुक मानते थे कि ससार मे केवल जीवराशि तथा अजीवराशि ये दो ही राशियाँ नही है। किन्तु "नोजीवराशि" नाम की एक तीसरी राशि भी है। नोजीवराशि का उदाहरण पूछे १ स्थानाग, टी०, २८७, पृ० ३९० २ वही,
पृ० ३९१ ३. वही,
पृ० ३९२अ. ४. महावीर का कहना था कि राशि दो है, जीवराशि तथा अजीव राशि ।
(समवायाग, २, स्थानाग, ५७ )