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द्वितीय अध्याय : आदर्श महापुरुष
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जमालि का मतभेद क्रियाविषयक नही, तर्कविषयक था। उनकी
समय में पूर्ण नही हो समय तक चलकर जव
इस प्रकार एक कार्य
मान्यता थी कि कोई भी कार्य किसी एक ही सकता । कोई भी कार्यविषयक क्रिया अनेक उपराम पाती है, तव कार्यसिद्धि होती है । अनेक समय की क्रिया मे निष्पन्न होता है । अत. कोई भी कार्य क्रियाकाल मे "क्रिया" नही कहा जा सकता । किन्तु क्रियाकलाप के अत मे जब कार्य पूरा हो जाए तब उसे "क्रिया " कहना चाहिए ।
इसके विपरीत महावीर का "चलमाणे चलिए", "करेमाणे कडे", अर्थात् चलने लगा चला, किया जाने लगा किया, यह सिद्धान्त है । इस सिद्धान्त का आधार ऋजुसूत्रनय' नामक निश्चय नय है । यह नय केवल वर्तमानग्राही है । अत इसके अनुसार किसी भी क्रिया का काल समय मात्र है। महावीर का सिद्धान्त है कि कोई भी क्रिया अपने वर्तमान समय मे कार्य साधक होकर दूसरे समय मे नष्ट हो जाती है । इस दशा मे प्रथम समय की क्रिया प्रथम समय मे ही कुछ कार्य करेगी तथा दूसरे समय की दूसरे समय में । प्रथम समय की किया दूसरे समय मे नही रहती, तथा दूसरे समय की तीसरे समय मे । इस दशा में प्रति समयभावी क्रियाएँ प्रति समयभावी पर्यायो का ही कारण वन सकती है, उत्तरकालभावी कार्य का नही । और जब क्रियाकाल निरग समय मात्र है, तत्र भगवान् महावीर का सिद्धान्त वास्तविक सिद्ध होता है । जमालि ने इसे बहुसमयात्मक मानकर आग्रहवत्र अपना मतभेद खडा किया और वे तथा उनके अनुयायी " बहुरतधर्माचार्य" कहलाए 13
तिष्यगुप्त - तिष्यगुप्त चतुर्दश पूर्वधारी वसुनायक आचार्य का गिप्य था । उसका मत था कि - " असख्यात प्रदेशो वाला जीव केवल एक प्रदेश के कम रह जाने मात्र से जीव नही कहा जा सकता, अत जिस अतिम प्रदेश के कम हो जाने से वह जीव नही कहा जा सकता वही प्रदेश तत्त्वत जीव है ।" गुरु ने उसे समझाया कि जो अतिम प्रदेश जीवसजा को प्राप्त करता है, वह गुणो मे एकादि प्रदेशो के समान ही है, अत जिस प्रकार एकादि प्रदेश अजीव है उसी
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इस शब्द की व्याख्या "जैनतत्त्वज्ञान" प्रकरण में देखिए | स्थानागमूत्र, टीका अभयदेव, ४८७ पृ० ३८९-३०
"श्रमण भगवान् महावीर", चतुर्य परिच्छेद पृ० २५६