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द्वितीय अध्याय : आदर्श महापुरुष
[६१.. मन, वचन, काय से त्याग करने वाला, कामभोगो मे अलिप्त, भिक्षाजीवी, और अकिंचन व्यक्ति ही सच्चा ब्राह्मण कहलाने के योग्य है।' माथा मुडा लेने से कोई साधु नही बन जाता, ओकार गव्द के उच्चारण से कोई ब्राह्मण नही हो जाता, घर छोडकर जगल मे रहने मात्र से मुनि तथा भगवा वस्त्र पहिन लेने से कोई तापस नही हो जाता। ___ महावीर ने वैदिक यज्ञ की तुलान जैनधर्म के सयम और तप से की है । वे कहते है कि पाँच इन्द्रियो को वश मे करने वाला, अपने जीवन की भी परवाह नही करने वाला, गरीर के ममत्व से रहित महापुरुप वाह्य शुद्धि की अपेक्षा न करते हुए, उत्तम एव महाविजयी भाव-यन करता है। उस भाव यन मे धर्मरूपी हद तथा ब्रह्मचर्यरूपी तीर्थ है । मनुष्य आत्मा के विशुद्ध धर्मकुड में "यज स्नान" कर कर्मरज से रहित होता है । यन स्नान किए हुए व्यक्ति को, तप अग्नि है, जीवात्मा ही उस तपरूपी अग्नि का स्थान है, मन, वचन, काय का योग कडछी है, कर्म ईधन (समिधा) है, और सयमरूपी शातिमत्र है। इस तरह प्रगस्त चरित्र रूपी यज्ञ द्वारा यजन को महर्पियो ने उत्तम माना है। महावीर ने अपने उपदेशो मे इस बात पर सव से अधिक वल दिया है कि मनुष्य को सासारिक काम-भोगो मे आसक्त नहीं होना चाहिए । दुवले वैल को, जैसे मार कूटकर चलाने पर वह अडियल हो जाता है और अत मे वजन ढोने के बदले थक कर पड़ जाता है, ऐसी ही दगा, विषय-रस सेवन किए हुए मनुष्य की है । ये विपय तो आज या कल छोडकर चले जायेगे, ऐसा सोचकर कामी मनुष्य को प्राप्त या अप्राप्त विपयो की वासना त्याग देना चाहिए।६ कामी मनुप्यो को अत मे वहुत पश्चात्ताप और विलाप करना पड़ता है । अत बुद्धिमान् पुरुप को पहिले ही सावधान होकर
१ उत्तराध्ययन २५ १९-२९ २ वही २५ ३१ ३२ ३ वही १२ ४२ ४ वही १२ ४५ ५ वही १२ ४४ ६ सूत्रकृताग, २३ ५६