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जैन- अगशास्त्र के अनुसार मानव-व्यक्तित्व का विकास
वे भगवान् पर नाराज हो जाते, पर भगवान् तो ध्यान ही करने रहते ।"
भगवान् दुर्गम प्रदेश लाट मे वज्र भूमि और शुभ्र - भूमि में भी विचरे थे । वहाँ उनको एकदम बुरी मे बुरी गत्या और आसन काम मे लाने पडे थे । वहाँ के लोग भी उनको वहुत मारते खाने को रूखा भोजन देते तथा कुत्ते काटते थे । कुछ लोग उन कुत्तो को रोकते थे, तो कुछ लोग कुत्तो को उन पर छोड कर उन्हे कटवाते थे । कितनी ही वार कुत्तो ने भगवान् की मास-पेशियो को खीत्र डाला । इतने पर भी ऐसे दुर्गम लाढ़ प्रदेश मे -हिसा का त्याग करके और शरीर की ममता छोड़कर वे अनगार भगवान् सब सकटो को सहन करते और संग्राम मे आगे रहने वाले विजयी हाथी के समान इन सकटो पर जय प्राप्त करते थे । अनेक वार लाढ प्रदेश मे बहुत दूर चले जाने पर भी गाँव न आता था, कई वार गाँव के पास आते ही लोग भगवान् को वाहर निकाल देते और मार कर दूर कर देते थे, कई बार वे भगवान् के शरीर पर बैठकर उनका मास काट लेते थे, कई वार उन पर धूल फेकी जाती थी तथा कई वार उनको ऊपर से नीचे डाल दिया जाता था । कभी-कभी तो लोग उन्हें आसन पर से ढकेल दिया करते थे । *
दीक्षा लेने के कुछ अधिक दो वर्ष पूर्व से ही भगवान् ने ठंढ़ा पानी पीना छोड दिया था । वे अपने लिए तैयार किया हुआ भोजन कभी नही करते थे । इसका कारण यह था कि वे इसमे अपने लिए कर्मबन्ध समझते थे । पापमात्र का त्याग करने वाले भगवान् निर्दोष आहार- पानी प्राप्त करके उसका ही उपयोग करते थे । वे कभी भी दूसरो के पात्र में भोजन नही करते थे और न दूसरो के वस्त्र ही काम मे लाते थे । मान-अपमान को त्याग कर, किसी की गरण न न चाहने वाले भगवान् भिक्षा के लिए फिरते थे | 3
भगवान् आहार पानी के परिमाण को वरावर समझते थे इस कारण वे कभी रसो मे ललचाते न थे । चॉवल, वेर का चूरा, और
आचागग, १९ ३० ३१ ३४-३५.
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२ वही, १९४१-५३
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वही, १६१, १९