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द्वितीय अध्याय . आदर्श महापुरुष
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खिचडी को खा खाकर ही वे अपना निर्वाह करते थे । भगवान् ने ८ महीने तक इन वस्तुओं पर निर्वाह किया । उन्होने आधे महीने तक पानी ग्रहण नही किया । इस प्रकार वे छह महीने तक विहार करते रहे । सदा आकाक्षारहित भगवान् किसी समय ठंडा अन्न खाते तो किसी समय छह, आठ, दस या बारह भक्त के वाद भोजन करते थे ।
गॉव या नगर मे जाकर वे दूसरो के लिए तैयार किया हुआ आहार सावधानी से खोजते थे । आहार लेने जाते समय मार्ग मे भूखे-प्यासे कौए आदि पक्षियों को बैठा देखकर तथा ब्राह्मण, श्रमण, भिखारी, अतिथि, चाण्डाल, कुत्ते, बिल्ली आदि को घर के आगे देख कर, उनको आहार मिलने मे वाधा न हो या उनको अप्रीति न हो, ऐसा सोचकर वे वहाँ मे धीरे-धीरे अन्यत्र चले जाते और दूसरे स्थान पर अहिसापूर्वक भिक्षा को खोजते थे । कई बार उन्होने भिगोया हुआ, सूखा तथा ठंडा आहार लिया । बहुत दिनो की खिचडी, तथा पुलाग ( निस्सार खाद्य ) भी वे कभी - कभी लेते थे । ऐसा भी न मिल पाता तो भगवान् शान्त भाव से रहते थे । २
भगवान् नीरोग होने पर भी भरपेट भोजन न करते थे और न औषधि ही लेते थे । शरीर का स्वरूप समझ कर वे उसकी शुद्धि के लिए सगोधन (जुलाब), वमन, विलेपन, स्नान और दत प्रक्षालन नही करते थे । इसी प्रकार शरीर के आराम के लिए वे अपने हाथ, पैर नही दववाते थे ।
कामसुखो से इस प्रकार विरत होकर वे विचरण करते थे । उन्होने कपायो की ज्वाला ज्ञात कर दी थी और उनका दर्शन विगद था । अपनी साधना मे वे इतने निमग्न थे कि उन्होने कभी अपनी आँख तक न मसली, और न शरीर को खुजाया ही । रति और अरति पर विजय प्राप्त करके उन्होने इस लोक के और देव-यक्ष आदि के अनेक भयकर संकटो को समभाव से सहन किया । ४
८.
आचाराग, १९५८-६०
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२. वही, १९६२-६७.
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वही,
९५४-५५
४ आचारांग, १८५६, ११, २०, ३२, ३३