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द्वितीय अध्याय : आदर्श महापुरुष
साधना का रहस्य
महावीर के साधनाविषयक आचाराग के प्राचीन और प्रामाणिक वर्णन से उनके जीवन की भिन्न-भिन्न घटनाओ से तथा अव तक उनके नाम से प्रचलित सम्प्रदाय की विशेषता से यह जानना कठिन नही है कि महावीर को किस तत्त्व की साधना करनी थी और उस साधना के लिए उन्होने मुख्यत कौन से साधन स्वीकार किये थे ।
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महावीर की साधना का केन्द्र अहिसा तत्त्व था और उसके लिए सयम और तप ये दो साधन मुख्य रूप से अगीकार किये थे । उन्होने यह विचार किया कि ससार मे जो वलवान् होता है वह निर्बल के सुख और साधन एक डाकू की तरह छीन लेता है । यह अपहरण करने की वृत्ति अपने माने हुए मुख के राग से, विशेषकर सुखशीलता से पैदा होती है । इस वृत्ति से गाति और समभाव का वातावरण कलुषित हुए बिना नही रहता । प्रत्येक व्यक्ति अपने सुख और सुविधा को इतना महत्त्व देने लगता है कि उसके सामने दूसरे प्राणियों की सुख-सुविधा का कुछ भी मूल्य नही होना । इस प्रकार स्वार्थपरिपूर्ण वृत्ति से, व्यक्ति-व्यक्ति, व्यक्ति-समाज तथा समाज समाजो मे आपस का अन्तर वढता है और शत्रुता की नीव पडती जाती है। इसके फलस्वरूप निर्बल वलवान् होकर वदला लेने का प्रयत्न करने लगता है । इस प्रकार हिंसा और प्रतिहिसा का ऐसा मलिन वातावरण तैयार होता है कि लोग इस संसार मे ही नरक का अनुभव करने लगते है। हिसा के रौद्र ताडव से आर्द्रहृदय महावीर ने अहिंसा-तत्त्व मे ही प्राणिमात्र की शांति का मूल देखा । यह विचार कर उन्होंने कायिक सुख-दुख की समता से वैर भाव रोकने के लिए तप प्रारंभ किया और अधैर्य जैसे मानसिक दोष से होने वाली हिंसा को रोकने के लिए सयम का अवलम्वन लिया ।
सयम का संबंध मुख्यत मन और वचन के साथ होने के कारण उसमे ध्यान और मौन का समावेग होता है। महावीर के समस्त साधक जीवन मे सयम और तप यही दो वाते मुख्य है और उन्हे सिद्ध करने के लिए १२ वर्षो तक उन्होने जो प्रयत्न किया और उसमे जिस तत्परता और अप्रमाद का परिचय दिया वैसा आज तक की तपस्या के इतिहास मे किसी व्यक्ति ने दिया हो, यह नही दिखाई