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जैन-अगशास्त्र के अनुसार मानव-व्यक्तित्व का विकास विना, जो कुछ भी परीषह और उपमर्ग आएंगे उन सवको अडिग होकर स्थिर भाव से सहन करेगे तथा उपसर्ग (विघ्न) देने वाले के प्रति समभाव रखेगे। ऐसा नियम लेकर महावीर भगवान् कुम्मार ग्राम मे आ पहुँचे।
इसके बाद भगवान् शरीर की ममता छोडकर विहार, निवासस्थान, उपकरण, तप, सयम, ब्रह्मचर्य, त्याग, सतोप, समिति, गुप्ति आदि मे सर्वोत्तम पराक्रम करते हुए तथा निर्वाण की भावना से अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे। वे उपकार तथा अपकार, सुख और दुख, लोक तथा परलोक, जीवन और मृत्यु, मान तथा अपमान आदि मे समभाव रखने, ससारममुद्र पार करने का निरन्तर प्रयत्न करने और कर्म रूपी शत्रु का समुच्छेद करने मे तत्पर रहते थे।
इस प्रकार विचरते हुए भगवान् को देव, मनुष्य तथा पशु-पक्षी आदि ने जो कष्ट दिये उन सवको उन्होने अपने मन को निर्मल रखते हुए, अदीनभाव से सहन किया और अपने मन, वचन और काय को पूर्ण रूप से स्वाधीन रखा। - इस प्रकार १२ वर्ष बीतने पर १३ वे वर्ष में, ग्रीष्म के दूसरे महीने में, वैसाख-शुक्ला दशमी को ज्राभक गॉव के वाहर ऋजुवालिका नदी के उत्तर किनारे पर श्यामाक नामक गृहस्थ के खेत मे भगवान् गोदोहासन से बैठे ध्यान मग्न होकर धूप मे तप कर रहे थे । उस समय उनको अट्ठमभत्त (छह दिन का अनशन) निर्जल उपवास था
और वे शुद्ध ध्यान में लीन थे। उसी समय उनको सपूर्ण, प्रतिपूर्ण, अव्याहत, निरावरण, अनन्त और सर्वोत्तम केवलज्ञान तथा दर्शन उत्पन्न हुआ । अव भगवान् अर्हत्, जिन, केवली, सर्वज्ञ और सर्वभावदर्गी हुए। __ भगवान् को केवलज्ञान हुआ, उस समय देव-देवियो के आने जाने से अतरिक्ष मे धूम मची थी। भगवान् ने प्रथम अपने को, फिर लोक को देखभाल कर पहिले देवो को उपदेश दिया और फिर मनुष्यो को।'
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आचाराग, २ १५ १७९ तथा कल्पसूत्र "लाइफ आफ महावीर" ।