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द्वितीय अध्याय • आदर्श महापुरुष
[ ५१ देहान्त होने पर अपनी प्रतिज्ञा (माता-पिता के देहान्त होने पर प्रव्रज्या लेने की पूरी करने का समय जानकर मार्गशीर्ष-कृष्णा दशमी को प्रव्रज्या तेने का निश्चय किया।
कर्म-भूमि' में उत्पन्न होने वाले तीर्थकर का जव दीक्षा लेने का समय निकट आता है तव पाँचवे कल्प के विमानो मे रहने वाले लोकान्तिक देव आकर उनको सवोधित करते है कि हे भगवन् ! आप सकल जीवो के हितकारक धर्म-तीर्थ की स्थापना करे । इसी के अनुसार २६ वे वर्ष उन देवो ने आकर भगवान् से ऐसी प्रार्थना की। तीसवे वर्ष मे भगवान् ने दीक्षा लेने की तैयारी की। उस समय सब देव-देवी अपनी समस्त समृद्धि के साथ अपने-अपने विमानो मे बैठकर कुण्डग्राम के उत्तर मे क्षत्रिय विभाग के ईशान्य मे आ पहुंचे।
हेमन्त ऋतु के पहिले महीने मे, प्रथम पक्ष में मार्गशीर्ष कृष्णा दशमी को भगवान् को शुद्ध जल से स्नान कराया गया और उत्तम सफेद वारीक दो वस्त्र और आभूपण पहिनाये गये। उनके लिए चन्द्रप्रभा नामक सुशोभित पालकी लाई गई, जिसमे भगवान् निर्मल शुभ मनोभाव से विराजमान हुए। उस समय उन्होने एक ही वस्त्र धारण किया था। फिर उनको धूमधाम से गाँव के बाहर ज्ञातृवशी क्षत्रियो के उद्यान में ले गये। उद्यान मे जाकर भगवान् ने पूर्वाभिमुख बैठकर सव आभूपण उतार डाले और पाँच मुट्ठियो मे दाहिने हाथ से दाहिनी ओर के और बाएँ हाथ से बाई ओर के सव वाल उखाड दिये। फिर सिद्ध को नमस्कार करके, "आगे से मैं कोई पाप नही करूँगा", यह नियम लेकर सामायिक चारित्र को स्वीकार किया। देव और मनुष्य चित्र के समान स्तब्ध होकर यह सब देखते रहे।
भगवान् को 'क्षायोपगमिक सामायिक चारित्र' लेने के बाद मन:पर्ययज्ञान प्राप्त हुआ और वे मनुष्य लोक के पचेन्द्रिय और सनी जीवों के मनोगत भावो को जानने लगे। प्रव्रज्या लेने के वाद महावीर ने मित्र, जाति, स्वजन और सवधियो को विदा किया और स्वय ने यह नियम लिया कि वे १२ वर्ष तक गरीर की रक्षा या उसमे ममता रखे,
१ ससार का वह भाग, जहाँ धर्म पालन किया जाता है, कर्मभूमि कहलाती
है । जम्बूद्वीप, भरत, ऐरावत तथा विदेह कर्मभूमि है । जैन सूत्रा भाग १-आचाराग, नोट न० १, पृ० १९५.