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________________ पुरोवाक् भारतीय संस्कृति की महत्ता, तपस्या और उत्सर्ग की भूमिका पर ही प्रतिष्ठित हुई है। जब साधक साधना करते करते सिद्धमय हो जाता है तो वही सस्कृति बन जाता है। आज से २५०० वर्ष पूर्व भगवान महावीर ने बहुजनहिताय और बहुजनसुखाय स्वय को उत्सर्ग कर दिया था। उनकी विराट् सवेदना देश, जाति, काल की सीमाओ को पार कर गई थी। इसलिए वे सृष्टिमात्र के उद्धारक एव मुक्तिदाता माने गए । अहिंसा और अपरिग्रह की ऐसी अमोघवाणी सृष्टि मे पहले कभी नहीं सुनी गई थी। अपनी तात्त्विक अर्थवत्ता में आज भी वह अनन्य है। लोक-कल्याण की दृष्टि से जन-भापा प्राकृत मे ही उनके प्रवचन मुखरित हुए ये । भगवान् महावीर के इन्ही उपदेशो का सार अगशास्त्र मे सग्रहीत है । युद्ध की विभीषिका से सत्रस्त अस्तव्यस्त मानवता को भगवान् की उस मगलमयी वाणी की जैसी आज आवश्यकता है, ऐसी पहले कभी नही थी। विश्वकल्याण की सार्वजनीनता को सवारने के लिये मानवात्मा के अन्तर्मन्थन से तत्वचिन्तन और दर्शन की जितनी उपलब्धियां आज तक हई हैं, उनमे अनेकान्त, सत्यान्वेषण की सर्वोत्तम उपलब्धि है। चिन्तन और मनन की भावभूमि पर शील, सौजन्य, सहिष्णता, उदारता और निरपेक्ष मूल्याकन का इससे बढकर उदाहरण मिल सकना कठिन है । प्राकृत-भापा मे निबद्ध जैन साहित्य विश्वमनीपा के तत्वचिन्तन की बहुमूत्य उपलब्धि है। बिना उसका अध्ययन किए भारतीय इतिहास एव सस्कृति का मर्म आत्मसात् नही किया जा सकता। जैन अगशास्त्रो की भापा अर्धमागधी प्राकृत है। भगवान महावीर ने इसी के माध्यम से जन-जन-कल्याणी गगा की धारा प्रवाहित की थी। इसी तप पूत वाणी की प्रेरणा से अनगिनत अनाम अर्हतो ने प्राकृत भाषा मे अनन्त स्रोतस्विनियाँ प्रवाहित की थी, जिनमे अवगाहन किए बिना भारतीय वाङ्मय के भावना-वैभव का आकलन नही किया जा सकता। महावीर-परिनिर्वाण के इस पावनपर्व पर यदि प्राकृत के
SR No.010330
Book TitleJain Angashastra ke Anusar Manav Vyaktitva ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarindrabhushan Jain
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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