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प्रकाशकीय
मानव का जन्म किसी एक परिवार मे होता है, किन्तु उसके जीवन का विकास होता है, समाज, राष्ट्र और धर्मसंघ के उत्तम वातावरण मे । विभिन्न धर्मशास्त्रों मे मानव-व्यक्तित्व के विकास के लिए विभिन्न मार्ग बताये है, परन्तु जैनधर्म ने मानवजीवन की अलग-अलग भूमिका के अनुसार व्यक्तित्व के विकास के लिए समन्वयवादी उदार दृष्टिकोण अपनाया है। जैनदर्शन ने व्यक्तित्व के विकास के लिए किसी देश, वेश, लिंग, सम्प्रदाय, जाति, चिह्न आदि को महत्त्व न दे कर ज्ञान-दर्शन- चारित्र की साधना को महत्त्व दिया है । जैनअगशास्त्रो मे ये वाते यत्रतत्र विखरी हुई मिलती हैं। डॉ० हरीन्द्रभूषण जैन ने अगशास्त्रो से मानव-व्यक्तित्व के सम्बन्ध मे बिखरे हुए वचनरत्नो को प्रवन्ध के रूप मे एक सूत्र मे पिरो कर इसे पुस्तकारूढ किया है । मानव-व्यक्तित्व के विकास के लिए सचमुच यह पुस्तक अनूठी मार्ग-दर्शक है । प्रत्येक विचारक के लिए, खासतौर से जैन-संस्कृति के प्रेमियो के लिए यह पुस्तक बहुत ही उपादेय है । यही सोच कर सन्मति ज्ञानपीठ ने इसके प्रकाशन का निश्चय किया ।
यद्यपि प्रेसो की कार्यव्यस्तता के कारण यह पुस्तक काफी विलम्ब से प्रकाशित हो रही है, जिसके लिए कई जैन विद्यारसिको को बहुत ही प्रतीक्षा भी करनी पडी है । इसके लिए हम उन पाठको से क्षमाप्रार्थी हैं ।
आशा है, धर्मदृष्टि से जीवननिर्माणप्रेमी पाठक इससे अवश्य ही लाभ उठायेंगे । सुज्ञ पु किंबहुना !
—मन्त्री,
सन्मति ज्ञानपीठ
लोहामंडी, आगरा-२