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जैन अंगशारत्र के अनुसार मानव-व्यक्तित्व का विकास बौद्ध ग्रन्थो मे निर्ग्रन्थ का 'एक गाटक' विशेपण पाश्र्वापत्यिक निर्ग्रन्थो की ओर ही सकेत करता है।
जैन-आगम तथा वौद्ध-साहित्य के उपर्युक्त उद्धरणो मे इस वात की सूचना मिलती है कि महावीर से पूर्व पार्श्वनाथ ने जिस निर्ग्रन्थ धर्म और सघ का निर्माण किया था उसने महावीर के धर्म और सघनिर्माण के लिए नीव का काम किया । पार्श्वकालीन श्रुत
जैन आगमो मे जहाँ कही भी अनगार धर्म स्वीकार करने की कथा है वहाँ या तो यह कहा गया है कि वह सामायिक आदि ११ अग पढता है या चतुर्दग पूर्व पढता है।'
शास्त्रो मे यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि आचाराग आदि ११ अगो की रचना महावीर के अनुगामी गणधरो ने की। भगवतीसूत्र मे अनेक जगह महावीर के मुख से कहलाया गया है कि अमुक वस्तु पुरुषादानीय पार्श्वनाथ ने वही कही है जिसको मै भी कहता हूँ।
और जव हम यह भी देखते है कि महावीर का तत्त्वज्ञान वही है जो पार्वापत्यिक परम्परा से चला आता है तव हमे 'पूर्व' शब्द का अर्थ समझने मे कोई दिक्कत नहीं आती। 'पूर्व' श्रुत का अर्थ स्पष्टतया यही है कि जो श्रुत महावीर के पूर्व से पाश्र्वापत्यिक परम्परा द्वारा चला आता था और जो किसी न किसी रूप मे महावीर को भी प्राप्त हुआ । डा० याकोवी का भी ऐसा ही मत है।४
जैन श्रुत के मुख्य विपय नवतत्त्व, पचअस्तिकाय, आत्मा और १ अगुत्तरनिकाय, छक्क निपात, २ १
११ अग पढने का उल्लेख, भगवती ११ ९.४, १८ १६ ५, पृ० ७६. जाता धर्मकथा, अ० १२ , १४ पूर्व पढने का उल्लेख भगवती सूत्र ११. ११ ४३२ , १७ २ ६१७ , ज्ञाता-धर्मकथा अ०५ । जाता-धर्म कथा अ०६ मे पांडवो के १४ पूर्व पढने का एव द्रौपदी के ११ अग पढने का उल्लेख है । इसी प्रकार जाता०२. १ मे काली साध्वी बनकर ११ अग पटनी है, ऐसा वर्णन है।
नदी सूत्र (विजयदानसूरि सशोधित), वणि पृ० १११ ४ जैन सूत्राज् १, प्रस्तावना पृ० ४४