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द्वितीय अध्याय : आदर्श महापुरुष
[४५ कर्म का सवध, उसके कारण, उनकी निवृत्ति के उपाय, कर्म का स्वरूप आदि है। इन्ही विपयो का महावीर और उनके शिष्यो ने सक्षेप से विस्तार और विस्तार से सक्षेप कर भले ही कहा हो, पर वे सब विषय पार्वापत्यिक परम्परा के पूर्ववर्ती श्रुत मे किसी न किसी रूप से निरूपित थे, इस विषय मे कोई सदेह नही । एक भी स्थान पर महावीर अथवा उनके शिप्यो में से किसी ने भी ऐसा नही कहा कि महावीर का श्रु त अपूर्व अर्थात् सर्वथा नवीन है। चौदह पूर्व के विपयो की एव उनके भेद-प्रभेदो की जो टूटी-फूटी यादी नंदीसत्र तथा धवला २ मे मिलती है उसका आचाराग आदि ११ अगो मे तथा अन्य उपांगादि शास्त्रो मे प्रतिपादित विपयो के साथ मिलान करने पर इसमे सदेह नही रहता कि जैन परम्परा के आचार-विचार विपयक मुख्य प्रश्नो की चर्चा पापित्यिक परम्परा के पूर्वश्रत और महावीर की परम्परा के अगोपाग श्रुत मे समान ही है।
कल्पसूत्र मे वर्णन है कि महावीर के सघ मे ३०० श्रमण १४ पर्व के धारी थे। इससे मैं अभी तक निम्नलिखित निष्कर्ष पर आया हूँ कि -
१ पार्वकालीन परम्परा का पूर्व-श्रुत महावीर को किसी न किसी रूप मे अवश्य प्राप्त हुआ, तथा उसी मे प्रतिपादित विपयों पर आचाराग आदि ग्रथो की पृथक्-पृथक् हाथो से रचना हुई।
२ महावीरशासित सब मे पूर्व श्रुत और आचाराग आदि श्रुत दोनो की वडी प्रतिष्ठा रही, फिर भी पूर्व-श्रुत की महिमा अधिक ही की जाती रही है। इसी से हम दिगम्बर तथा श्वेताम्वर, दोनों परम्पराओ के साहित्य मे आचार्यों का ऐसा प्रयत्न पाते है कि वे अपने अपने कर्मविपयक तथा ज्ञान आदि विपयक इतर पूरातनग्रंथो का सबध उस विपय के पूर्व नामक ग्रथ से जोड़ते हैं। दोनो परम्परा के वर्णन से इतना निश्चित मालूम पड़ता है कि सारी निर्ग्रथपरम्परा अपने वर्तमान श्रुत का मूल 'पूर्व' मे मानती आई है।४ १ नदीसूत्र, पृ० १०६ २ पट्खडागम (धवला टीका) पुस्तक १, पृ० ११४
जैनसूत्राज भाग १ (कल्पसूत्र ५), पृ० २६८ ४. चार तीर्थकर, पृ० १५५