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द्वितीय अध्याय . आदर्श महापुरुष
[४१ कारण अब्रह्म-विरमण मे मिथिलता आई और परिग्रह-विरति के अर्थ मे स्पष्टता करने की आवश्यकता प्रतीत हुई, तव महावीर ने अब्रह्मविरमण को परिग्रह विरमण से अलग स्वतत्र यमरूप में स्वीकार करके पॉच महाव्रतो की भीष्म-प्रतिज्ञा निर्ग्रन्थो के लिए रखी और स्वय उस प्रतिजा-पालन के अग्रणी हुए। इतना ही नहीं, बल्कि क्षणक्षण के जीवन-क्रम में बदलने वाली मनोवृत्तियो के कारण होने वाले मानसिक, वाचिक, कायिक दोप भी महावीर को निर्ग्रन्थ जीवन के लिए अत्यन्त अखरने लगे, इसलिए उन्होने निर्ग्रन्थजीवन मे सतत जागृति रखने के लिए प्रतिक्रमण धर्म को भी स्थान दिया, जिससे कि प्रत्येक निर्ग्रन्थ साय-प्रात अपने जीवन की त्रुटियो का निरीक्षण करे और लगे दोपो की आलोचनापूर्वक भविप्य मे दोपो से बचने के लिए गुद्ध सकल्प को दृढ करे । उनके इस कठोर प्रयत्न के कारण ही चार याम का नाम स्मृतिगेष रह गया तथा पाँच महाव्रत सयम धर्म के जीवित अग बने ।
जव चार याम मे से महावीर के पाँच महाव्रत और बुद्ध के पाँच गील के विकास पर विचार करते है, तव कहना पडता है कि पार्वनाथ के चार याम की परम्परा का जातपुत्र ने अपनी दृष्टि के अनुसार और गाक्यपुत्र ने अपनी दृष्टि के अनुसार विकास किया । अध्यापक धर्मानन्द कोगाम्बी के "पार्श्वनाथाचा चातुर्यामधर्म" नामक पुस्तक लिखने का तात्पर्य भी यही बतलाना है कि गाक्य पुत्र ने पावनाथ के चातुर्यामधर्म की परम्परा का विकास किस तरह किया।
आचाराग मे कहा गया है कि महावीर ने गृह त्याग करते समय एक वस्त्र धारण किया था । क्रमश उन्होने उसका हमेशा के लिए त्याग कर दिया और पूर्णतया अचेलत्व स्वीकार किया। इससे यह ज्ञात होता है कि महावीर ने सचेलत्व में से अचेलत्व की ओर कदम वढाया।
पाश्र्वापत्यिक-परम्परा मे निर्ग्रन्थो के लिए मर्यादित वस्त्र धारण वर्जित न था, जव कि महावीर ने वस्त्रधारण के वारे मे अनेकान्त
१ चार तीर्थकर, पृ० १५१, १५२ २ वही, पृ० १५५ ३ आचाराग १९१