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जैन अगशास्त्र के अनुसार मानव-व्यक्तित्व का विकान
पार्श्वनाथ के चातुर्याम तथा महावीर के पंचमहाव्रत का अन्तर उत्तराध्ययन के २३ वे अध्ययन में वर्णित है । वहाँ पावपित्यिक निर्ग्रन्थकेगी और महावीर के प्रमुख गिप्य इन्द्रभूति (गौतम), दोनो के श्रावस्ती मे मिलने की और आचार-विचार के कुछ प्रश्नों पर सवाद होने की बात कही गई है। केशी पावपित्यिक प्रभावशाली निर्ग्रन्थ रूप से निर्दिष्ट है | इन्द्रभूति तो महावीर के साक्षात् गिप्य ही है। उनके बीच की वार्ता के विषय कई है, पर यहाँ प्रस्तुत दो ही है। केशी गौतम से पूछते है कि हे मुने । पार्श्व ने चारयाम-रूप धर्म का उपदेश दिया, जवकि वर्द्धमान महावीर पचमहाव्रत रूप धर्म बतलाते है, मो क्यो ? इसी तरह पार्श्वनाथ ने सचेल ( सवस्त्र) धर्म वतलाया, कि महावीर ने अचेल (वस्त्र रहित ) धर्म, सो क्यो ? इसके जवाव मे इन्द्रभूति ने कहा कि तत्त्वदृष्टि से चारयाम और पंचमहाव्रत में कोई अन्तर नही है, केवल वर्तमान युग की कम और विपरीत समझ देखकर ही महावीर ने विशेष शुद्धि की दृष्टि से चार के स्थान पर पाच महाव्रत का उपदेश दिया है । मोक्ष का वास्तविक कारण तो आन्तर ज्ञान, दर्शन और गुद्ध चारित्र ही है । इन्द्रभूति के उत्तर की यथार्थता देखकर केगी पंचमहाव्रत धर्म स्वीकार करते है और इस प्रकार महावीर के सघ के एक अग वनते है । '
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उत्तराध्ययन के उक्त प्रकरण से यह वात स्पष्ट हो जाती है कि पार्श्व के चातुर्याम धर्म और महावीर के पचमहाव्रत धर्म मे कोई अन्तर नही है । पावपित्यिक परम्परा के चार यामो मे से "वहिद्धादाण” का अर्थ जानना यहाँ आवश्यक है । नवागी - टीकाकार अभयदेव ने "वहिद्धादाण " शब्द का अर्थ "परिग्रह " सूचित किया है ! " परिग्रह से विरति " यह पार्श्वपित्यिको का चौथा याम था जिसमें अब्रह्म का वर्जन अवश्य अभिप्रेत था । "
इस प्रकार पार्श्व के चातुर्याम धर्म मे " वहिद्धादाण" का अर्थ परिग्रह तथा अब्रह्म दोनो है किन्तु जब मनुष्य सुलभ दुर्बलता के
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उत्तराध्ययन अ० २३ श्लोक २३, ३२ पृ० २५२
२ इह च मैथुन परिग्रहेऽन्तर्भवति, न हि अपरिगृहीता योपिद् भुज्यते,
—स्थानाग, २६६ सूत्रवृत्ति.